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मित्रसम्प्राप्ति] [१२५


दूसरे दिन गुप्तधन पेचिश से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा। इस तरह उसकी क्षतिपूर्त्ति हो गई।

सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्तधन के घर गया। वहां उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया। सोने के लिये सुन्दर शय्या भी दी। सोते-सोते उसने फिर सुना; वही दोनों देव बातें कर रहे थे। एक कह रहा था—"हे पौरुष! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे होगी?" दूसरे ने कहा—"हे भाग्य! सत्कार के लिये धन व्यय करवाना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है।"

सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राज-दरबार से एक राज-पुरुष राज-प्रसाद के रूप में धन की भेंट लाकर उपभुक्त धन को दे रहा था। यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि "यह संचय-रहित उपभुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन का दान कर दिया जाय या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाय वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है।"

मन्थरक ने ये कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तेरा ज़मीन में गड़ा हुआ ख़ज़ाना चला गया तो जाने दे। भोग के बिना उसका तेरे लिये उपयोग भी क्या था? उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यही है कि उसका दान कर दिया जाय। शहद की मक्खियाँ इतना मधु-सञ्चय करती हैं, किन्तु उपभोग नहीं