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१२८] [पञ्चतन्त्र

विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से किसी को देखकर कहा—"यह तो बहुत बुरा हुआ।"

हिरण्यक ने पूछा—"क्या कोई व्याध आ रहा है?"

लघुपतनक—"नहीं, व्याध तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है।"

हिरण्यक—"तब तो खुशी की बात है। दुःखी क्यों होता है?"

लघुपतनक—"दुःखी इसलिये होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक बिल में घुस जायगा, चित्रांग भी छलागें मारकर घने जङ्गल में घुस जायगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचायगा? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ।"

मन्थरक के वहाँ आने पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा—"मित्र! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। अब भी वापिस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाय"

मन्थरक ने कहा—"मित्र! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं‌ रह सका। सोचा, उसकी आपत्ति में हाथ बटाऊँगा, तभी चला आया।"

ये बातें हो ही रही थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग के बन्धन काट दिये। चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ। लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया। हिरण्यक पास के बिल में घुस गया।

व्याध अपने जाल में किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ।