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मित्रसम्प्राप्ति] [१२९

वहाँ से वापिस जाने को मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई। उसने सोचा, "आज हिरण तो हाथ आया नहीं, कछुए को ही ले चलता हूँ। कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा। उससे ही पेट भरूँगा।" यह सोचकर वह कछुए को कन्धे पर डालकर चल दिया। उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ। दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे। चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया। तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय सोचने लगे।

कौए ने तब एक उपाय ढूँढ निकाला। वह यह कि—"चित्रांग व्याध के मार्ग में, तालाब के किनारे जाकर लेट जाय। मैं तब उसे चोंच मारने लगूंगा। व्याध समझेगा कि हिरण मरा हुआ है। वह मन्थरक को ज़मीन पर रखकर इसे लेने के लिये जब आयगा तो हिरण्यक जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दे। मन्थरक तालाब में घुस जाय, और चित्रांग छलांगें मारकर घने जंगल में चला जाय। मैं उड़कर वृक्ष पर चला ही जाऊँगा। सभी बच जायंगे, मन्थरक भी छूट जायगा!"

तीनों मित्रों ने यही उपाय किया। चित्रांग तालाब के किनारे मृतवत जा लेटा। कौवा उसकी गरदन पर सवार होकर चोंच चलाने लगा। व्याध देखा तो समझा कि हिरण जाल से छूट कर दौड़ता-दौड़ता यहाँ मर गया है। उसे लेने के लिये वह जाल-बद्ध कछुए को ज़मीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक ने