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काकोलूकीयम्] [१४१

खरगोशों के अनगिनत बिल थे। उन बिलों से ज़मीन पोली हो गई थी। हाथियों के पैरों से वे सब बिल टूट-फूट गए। बहुत से खरगोश भी हाथियों के पैरों से कुचले गये। किसी की गर्दन टूट गई, किसी का पैर टूट गया। बहुत से मर भी गये।

हाथियों के वापस चले जाने के बाद उन बिलों में रहने वाले क्षत-विक्षत, लहू-लुहान खरगोशों ने मिल कर एक बैठक की। उस में स्वर्गवासी खरगोशों की स्मृति में दुःख प्रगट किया गया तथा भविष्य के संकट का उपाय सोचा गया। उन्होंने सोचा—आस-पास अन्यत्र कहीं जल न होने के कारण ये हाथी अब हर रोज़ इसी तालाब में आया करेंगे और उनके बिलों को अपने पैरों से रौंदा करेंगे। इस प्रकार दो चार दिनों में ही सब खरगोशों का वंशनाश हो जायगा। हाथी का स्पर्श ही इतना भयङ्कर है जितना साँप का सूँघना, राजा का हँसना और मानिनी का मान!

इस संकट से बचने का उपाय सोचते-सोचते एक ने सुझाव रखा—"हमें अब इस स्थान को छोड़ कर अन्य देश में चले जाना चाहिए। यह परित्याग ही सर्वश्रेष्ठ नीति है। एक का परित्याग परिवार के लिये, परिवार का गाँव के लिये, गाँव का शहर के लिये और सम्पूर्ण पृथ्वी का परित्याग अपनी रक्षा के लिए करना पड़े तो भी कर देना चाहिये।"

किन्तु, दूसरे खरगोशों ने कहा—"हम तो अपने पिता-पितामह की भूमि को न छोड़ेंगे।"

कुछ ने उपाय सुझाया कि खरगोशों की ओर से एक चतुर