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३.

बिल्ली का न्याय

"सुद्रमर्थपति प्राप्य न्यायान्वेषणतत्परौ।
उभावपिं क्षयं प्राप्तौ पुरा शशकपिंजलाै॥"

नीच और लोभी को पंच बनाने वाले दोनों

पक्ष नष्ट हो जाते हैं।


एक जंगल के जिस वृत की शाखा पर मैं रहता था, उसके नीचे के तने में एक खोल के अन्दर कपिंजल नाम का तीतर भी रहता था। शाम को हम दोनों में खूब बातें होती थीं। हम एक-दूसरे को दिन भर के अनुभव सुनाते थे और पुराणों की कथायें कहते थे।

एक दिन वह तीतर अपने साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई-नई कोपलें खाने चला गया। बहुत रात बीते भी जब वह नहीं आया तो मैं बहुत चिन्तित होने लगा। मैंने सोचा—किसी बधिक ने जाल में न बाँध लिया हो, या किसी जंगली बिल्ली ने न खा लिया हो। बहुत रात बीतने के बाद उस वृक्ष के खाली पड़े खोल में 'शीघ्रगो' नाम का खरगोश घुस आया। मैं भी तीतर

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