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काकोलूकीयम्] [१४५

के वियोग में इतना दुःखी था कि उसे रोका नहीं।

दूसरे दिन कपिंजल अचानक ही आ गया। धान की नई-नई कोंपले खाने के बाद वह खूब मोटा-ताज़ा हो गया था। अपनी खोल में आने पर उसने देखा कि वहाँ एक खरगोश बैठा है। उसने खरगोश को अपनी जगह खाली करने को कहा। खरगोश भी तीखे स्वभाव का था; बोला—"यह घर अब तेरा नहीं है। वापी, कूप, तालाब और वृक्ष के घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा करले उसका ही वह घर हो जाता है। घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिये होता है, पक्षियों के लिये गृह-स्वामित्व का कोई विधान नहीं है।"

झागड़ा बढ़ता गया। अन्त में, कपिंजल ने किसी भी तीसरे पंच से इसका निर्णय करने की बात कही। उनकी लड़ाई और समझौते की बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी। उसने सोचा, मैं ही पंच बन जाऊँ तो कितना अच्छा है; दोनों को मार कर खाने का अवसर मिल जायगा।

यह सोच हाथ में माला लेकर सूर्य की ओर मुख कर के नदी के किनारे कुशासन बिछाकर वह आँखें मूंद बैठ गयी और धर्म का उपदेश करने लगी। उसके धर्मोपदेश को सुनकर खरगोश ने कहा—"यह देखो! कोई तपस्वी बैठा है, इसी को पंच बनाकर पूछ लें।" तीतर बिल्ली को देखकर डर गया; दूर से बोला—"मुनिवर! तुम हमारे झगड़े का निपटारा कर दो। जिसका पक्ष धर्म-विरुद्ध होगा उसे तुम खा लेना।" यह सुन बिल्ली ने आँख खोली और कहा—