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१४६] [पञ्चतन्त्र

"राम-राम! ऐसा न कहो। मैंने हिंसा का नारकीय मार्ग छोड़ दिया है। अतः मैं धर्म-विरोधी पक्ष की भी हिंसा नहीं करूँगी। हाँ, तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है। किन्तु, मैं वृद्ध हूँ; दूर से तुम्हारी बात नहीं सुन सकती, पास आकर अपनी बात कहो।" बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया; दोनों ने उसे पंच मान लिया, और उसके पास आ गये। उसने भी झपट्टा मारकर दोनों को एक साथ ही पंजों में दबोच लिया।

इसी कारण, मैं कहता हूँ कि नीच और व्यसनी को राजा बनाओगे तो तुम सब नष्ट हो जाओगे। इस दिवान्ध उल्लू को राजा बनाओगे तो वह भी रात के अंधेरे में तुम्हारा नाश कर देगा।"

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कौवे की बात सुनकर सब पक्षी उल्लू को राज-मुकुट पहनाये बिना चले गये। केवल अभिषेक की प्रतीक्षा करता हुआ उल्लू उसकी मित्र कृकालिका और कौवा रह गये। उल्लू ने पूछा—"मेरा अभिषेक क्यों नहीं हुआ?"

कृकालिका ने कहा—"मित्र! एक कौवे ने आकर रंग में भंग कर दिया। शेष सब पक्षी उड़कर चले गये हैं, केवल वह कौवा ही यहाँ बैठा है।"

तब, उल्लू ने कौवे से कहा—"दुष्ट कौवे! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मेरे कार्य में विघ्न डाल दिया। आज से मेरा-तेरा वंशपरंपरागत वैर रहेगा।"