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१५८] [पञ्चतन्त्र

ये हंस कहते हैं कि यह तालाब उनका है, राजा का नहीं; राजा उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। मैंने उन से कहा था कि तुम राजा के प्रति अपमानभरे शब्द मत कहो, किन्तु वे न माने।"

राजा कानों का कच्चा था। उसने पक्षी के कथन को सत्य मानकर तालाब के स्वर्णमय हंसों को मारने के लिए अपने सिपाहियों को भेज दिया। हंसों ने जब सिपाहियों को लाठियाँ लेकर तालाब की ओर आते देखा तो वे समझ गए कि अब इस स्थान पर रहना उचित नहीं। अपने वृद्ध नेता की सलाह से वे उसी समय वहाँ से उड़ गये।

स्वजनों को यह कहानी कहने के बाद हरिदत्त शर्मा ने फिर क्षेत्रपाल सांप की पूजा का विचार किया। दूसरे दिन वह पहले की तरह दूध लेकर वल्मीक पर पहुँचा, और साँप की स्तुति प्रारम्भ की। सांप बहुत देर बाद वल्मीक से थोड़ा बाहर निकल कर ब्राह्मण से बोला—

"ब्राह्मण! अब तू पूजा भाव से नहीं, बल्कि लोभ से यहाँ आया है। अब तेरा मेरा प्रेम नहीं हो सकता। तेरे पुत्र ने जवानी के जोश में मुझ पर लाठी का प्रहार किया। मैंने उसे डस लिया। अब न तो तू ही पुत्र-वियोग के दुःख को भूल सकता है और न ही मैं लाठी-प्रहार के कष्ट को भुला सकता हूँ।"

यह कहकर वह एक बहुत बड़ा हीरा देकर अपने बिल में