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काकोलूकीयम्] [१७३

ने पर्वत से कहा कि वह अपने से अच्छा कोई वर सुझाये। तब पर्वत ने कहा—"मुझ से अच्छा चूहा है, जो मुझे तोड़कर अपना बिल बना लेता है।" मुनि ने तब चूहे को बुलाया और कन्या से कहा—"पुत्री! यह मूषकराज तुझे स्वीकार हो तो इससे विवाह कर ले।" मुनिकन्या ने मूषकराज को बड़े ध्यान से देखा। उसके साथ उसे विलक्षण अपनापन अनुभव हो रहा था। प्रथम दृष्टि में ही वह उस पर मुग्ध होगई और बोली—"मुझे मूषिका बनाकर मूषकराज के हाथ सौंप दीजिये।"

मुनि ने अपने तपोबल से उसे फिर चुहिया बना दिया और चूहे के साथ उसका विवाह कर दिया।

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रक्ताक्ष द्वारा यह कहानी सुनने के बाद भी उलूकराज के सैनिक स्थिरजीवी को अपने दुर्ग में ले गये। दुर्ग के द्वार पर पहुँच कर उलूकराज अरिमर्दन ने अपने साथियों से कहा कि स्थिरजीवी को वही स्थान दिया जाय जहाँ वह रहना चाहे। स्थिरजीवी ने सोचा कि उसे दुर्ग के द्वार पर ही रहना चाहिये, जिससे दुर्ग से बाहर जाने का अवसर मिलता रहे। यही सोच उसने उलूकराज से कहा—"देव! आपने मुझे यह आदर देकर बहुत लज्जित किया है। मैं तो आप का सेवक ही हूँ, और सेवक के स्थान पर ही रहना चाहता हूँ। मेरा स्थान दुर्ग के द्वार पर ही रखिये। द्वार की जो धूलि आप के पद-कमलों से पवित्र होगी उसे अपने मस्तक पर रखकर ही मैं अपने को सौभाग्यवान मानूंगा।"