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१.

मेंढक-साँप की मित्रता

"योऽमित्रं कुरुते मित्रं वीर्याभ्यधिकमात्मनः।
स करोति न सन्देहः स्वयं हि विषभक्षणम्॥"


अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र

बनाने से अपना ही नाश होता है।

एक कुएँ में गंगदत्त नाम का मेंढक रहता था। वह अपने मेंढक-दल का सरदार था। अपने बन्धु-बान्धवों के व्यवहार से खिन्न होकर वह एक दिन कुएँ से बाहर निकल आया। बाहर आकर वह सोचने लगा कि किस तरह उनके बुरे व्यवहार का बदला ले।

यह सोचते-सोचते वह एक सर्प के बिल के द्वार तक पहुँचा। उस बिल में एक काला नाग रहता था। उसे देखकर उसके मन में यह विचार उठा कि इस नाग द्वारा अपनी बिरादरी के मेंढकों का नाश करवा दे। शत्रु से शत्रु का वध करवाना ही नीति है। कांटे से ही कांटा निकाला जाता है। यह सोचकर वह बिल में घुस गया।

(१९४)