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१९६] [पञ्चतन्त्र

बना हुआ है। वहाँ बैठकर तू बिना कष्ट सब मेंढकों का नाश कर सकता है।"

प्रियदर्शन बूढ़ा साँप था। उसने सोचा—'बुढ़ापे में बिना कष्ट भोजन मिलने का अवसर नहीं छोड़ना चाहिये। गंगदत्त के पीछे-पीछे वह कुएँ में उतर गया। वहाँ उसने धीरे-धीरे गंगदत्त के वे सब भाई-बन्धु खा डाले, जिनसे गंगदत्त का वैर था। जब सब ऐसे मेंढक समाप्त हो गये तो वह बोला—

"मित्र! तेरे शत्रुओं का तो मैंने नाश कर दिया। अब कोई भी ऐसा मेंढक शेष नहीं रहा जो तेरा शत्रु हो।" मेरा पेट अब कैसे भरेगा? तू ही मुझे यहाँ लाया था; तू ही मेरे भोजन की व्यवस्था कर।"

गंगदत्त ने उत्तर दिया—"प्रियदर्शन! अब मैं तुझे तेरे बिल तक पहुँचा देता हूँ।" जिस मार्ग से हम यहाँ आये थे, उसी मार्ग से बाहर निकल चलते हैं।"

प्रियदर्शन—"यह कैसे संभव है। उस बिल पर तो अब दूसरे साँप का अधिकार हो चुका होगा।"

गंगदत्त—"फिर क्या किया जाय?"

प्रियदर्शन—"अभी तक तूने मुझे अपने शत्रु मेंढकों को भोजन के लिये दिया है। अब दूसरे मेंढकों में से एक-एक करके मुझे देता जा; अन्यथा मैं सब को एक ही बार खाजाऊँगा।"

गंगदत्त अब अपने किये पर पछताने लगा। जो अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है, उसकी यही दशा होती