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लब्धप्रणाशम्] [१९७

है। बहुत सोचने के बाद उसने निश्चय किया कि वह शेष रह गये मेंढकों में से एक-एक को सांप का भोजन बनाता रहेगा। सर्वनाश के अवसर पर आधे को बचा लेने में ही बुद्धिमानी है। सर्वस्वहरण के समय अल्पदान करना ही दूरदर्शिता है।

दूसरे दिन से साँप ने दूसरे मेंढकों को भी खाना शुरू कर दिया। वे भी शीघ्र ही समाप्त हो गये। अन्त में एक दिन सांप ने गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा लिया। गंगदत्त अपने पुत्र की हत्या पर रो उठा। उसे रोता देखकर उसकी पत्नी ने कहा—"अब रोने से क्या होगा? अपने जातीय भाइयों का नाश करने वाला स्वयं भी नष्ट हो जाता है। अपने ही जब नहीं रहेंगे, तो कौन हमारी रक्षा करेगा?"

अगले दिन प्रियदर्शन ने गंगदत्त को बुलाकर फिर कहा कि "मैं भूखा हूँ, मेंढक तो सभी समाप्त हो गये। अब तू मेरे भोजन का कोई और प्रबन्ध कर।"

गंगदत्त को एक उपाय सूझ गया। उसने कुछ देर विचार करने के बाद कहा—"प्रियदर्शन! यहाँ के मेंढक तो समाप्त हो गये; अब मैं दूसरे कूओं से मेंढकों को बुलाकर तेरे पास लाता हूँ, तू मेरी प्रतीक्षा करना।"

प्रियदर्शन को यह युक्ति समझ आगई। उसने गंगदत्त को कहा—"तू मेरा भाई है, इसलिये मैं तुझे नहीं खाता। यदि तू दूसरे मेंढकों को बुला लायगा तो तू मेरे पिता समान पूज्य हो जायगा।"