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२००] [पञ्चतन्त्र

तालाब के किनारे लम्बकर्ण नाम के गधे को हरी-हरी घास की कोमल कोपलें खाते देखा। उसके पास जाकर बोला—"मामा! नमस्कार। बड़े दिनों बाद दिखाई दिये हो। इतने दुबले कैसे हो गये?"

गधे ने उत्तर दिया—"भगिनीपुत्र! क्या कहूँ? धोबी बड़ी निर्दयता से मेरी पीठ पर बोझा रख देता है और एक क़दम भी ढीला पड़ने पर लाठियों से मारता है। घास मुट्ठीभर भी नहीं देता। स्वयं मुझे यहाँ आकर मिट्टी-मिली घास के तिनके खाने पड़ते हैं। इसीलिये दुबला होता जा रहा हूँ।"

गीदड़ बोला—"मामा! यही बात है तो मैं तुझे एक जगह ऐसी बतलाता हूँ, जहाँ मरकत-मणि के समान स्वच्छ हरी घास के मैदान हैं, निर्मल जल का जलाशय भी पास ही है। वहाँ आओ और हँसते-गाते जीवन व्यतीत करो।"

लम्बकर्ण ने कहा—"बात तो ठीक है भगिनीपुत्र! किन्तु हम देहाती पशु हैं, वन में जङ्गली जानवर मार कर खा जायेंगे। इसीलिये हम वन के हरे मैदानों का उपभोग नहीं कर सकते।"

गीदड़—"मामा! ऐसा न कहो। वहाँ मेरा शासन है। मेरे रहते कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। तुम्हारी तरह कई गधों को मैंने धोबियों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है। इस समय भी वहाँ तीन गर्दभ-कन्यायें रहती हैं, जो अब ज़वान हो चुकी हैं। उन्होंने आते हुए मुझे कहा था कि तुम हमारी सच्ची माँ हो तो गाँव में जाकर हमारे लिये किसी गर्दभपति को लाओ।