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लब्धप्रणाशम्] [२०१

इसीलिए तो मैं तुम्हारे पास आया हूँ।"

गीदड़ की बात सुनकर लम्बकर्ण ने गीदड़ के साथ चलने का निश्चय कर लिया। गीदड़ के पीछे-पीछे चलता हुआ वह उसी वन प्रदेश में आ पहुँचा जहाँ कई दिनों का भूखा शेर भोजन की प्रतीक्षा मैं बैठा था। शेर के उठते ही लम्बकर्ण ने भागना शुरू कर दिया। उसके भागते-भागते भी शेर ने पंजा लगा दिया। लेकिन लम्बकर्ण शेर के पंजे में नहीं फँसा, भाग ही गया। तब, गीदड़ ने शेर से कहा—

"तुम्हारा पंजा बिल्कुल बेकार हो गया है। गधा भी उसके फन्दे से बच भागता है। क्या इसी बल पर तुम हाथी से लड़ते हो?"

शेर ने ज़रा लज्जित होते हुए उत्तर दिया—"अभी मैंने अपना पंजा तैयार भी नहीं किया था। वह अचानक ही भाग गया। अन्यथा हाथी भी इस पंजे की मार से घायल हुए बिना भाग नहीं सकता।"

गीदड़ बोला—"अच्छा! तो अब एक बार और यत्न करके उसे तुम्हारे पास लाता हूँ। यह प्रहार खाली न जाये।"

शेर—"जो गधा मुझे अपनी आँखों देख कर भागा है, वह अब कैसे आयगा? किसी और पर घात लगाओ।"

गीदड़—"इन बातों में तुम दख़ल मत दो। तुम तो केवल तैयार होकर बैठ रहो।"