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लब्धप्रणाशम्] [२०५

उसे अपनी सेना में ऊँचा पद दे दिया। राजा के पुत्र व अन्य सेनापति इस सम्मान को देखकर जलते थे, लेकिन राजभय से कुछ कह नहीं सकते थे।

कुछ दिन बाद उस राजा को युद्ध-भूमि में जाना पड़ा। वहाँ जब लड़ाई की तैयारियाँ हो रही थीं, हाथियों पर हौदे डाले जा रहे थे, घोड़ों पर काठियां चढ़ाई जा रही थीं, युद्ध का बिगुल सैनिकों को युद्ध-भूमि के लिये तैयार होने का संदेश दे रहा था—राजा ने प्रसंगवश युधिष्ठिर कुंभकार से पूछा—"वीर! तेरे माथे पर यह गहरा घाव किस संग्राम में कौन से शत्रु का सामना करते हुए लगा था?"

कुंभकार ने सोचा कि अब राजा और उसमें इतनी निकटता हो चुकी है कि राजा सच्चाई जानने के बाद भी उसे मानता रहेगा। यह सोच उसने सच बात कह दी कि—"यह घाव हथियार का घाव नहीं है। मैं तो कुंभकार हूं। एक दिन शराब पीकर लड़खड़ाता हुआ जब मैं घर से निकला तो घर में बिखरे पड़े घड़ों के ठीकरों से टकरा कर गिर पड़ा। एक नुकीला ठीकरा माथे में गड़ गया। यह निशान उसका ही है।"

राजा यह बात सुनकर बहुत लज्जित हुआ, और क्रोध से कांपते हुए बोला—"तूने मुझे ठगकर इतना ऊँचा पद पालिया। अभी मेरे राज्य से निकल जा।" कुंभकार ने बहुत अनुनय विनय की कि—"मैं युद्ध के मैदान में तुम्हारे लिये प्राण दे दूंगा, मेरा युद्ध-कौशल तो देख लो।" किन्तु, राजा ने एक बात न सुनी।