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मित्रभेद]
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दमनक राजसभा में आकर पिंगलक को प्रणाम करके अपने निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया। पिंगलक ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा कर दमनक से कुशल-क्षेम पूछते हुए कहा—"कहो दमनक! सब कुशल तो है? बहुत दिनों बाद आए? क्या कोई विशेष प्रयोजन है?"

दमनक—"विशेष प्रयोजन तो कोई भी नहीं। फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिये स्वयं आना चाहिये। राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम सभी प्रकार के सेवक हैं। राजा के लिये सभी का प्रयोजन है। समय पर तिनके का भी सहारा लेना पड़ता है, सेवक की तो बात ही क्या है?"

"आपने बहुत दिन बाद आने का उपालंभ दिया है। उसका भी कारण है। जहाँ काँच की जगह मणि और मणि के स्थान पर काँच जड़ा जाय वहाँ अच्छे सेवक नहीं ठहरते। जहाँ पारखी नहीं, वहाँ रत्नों का मूल्य नहीं लगता। स्वामी और सेवक परस्पराश्रयी होते हैं। उन्हें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। राजा तो सन्तुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते हैं—किन्तु सेवक सन्तुष्ट होकर राजा के लिये प्राणों की बलि दे देता है।

पिंगलक दमनक की बातों से प्रसन्न हो कर बोला—"तू तो हमारे भूतपूर्व मन्त्री का पुत्र है, इसलिये तुझे जो कहना है निश्चिन्त होकर कह दे।"

दमनक—"मैं स्वामी से कुछ एकान्त में कहना चाहता हूँ।