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को ब्रह्म-वाक्य मानने वाले चारों पंडित महाजनों के पीछे-पीछे श्मशान की ओर चल पड़े।

थोड़ी दूर पर श्मशान में उन्होंने एक गधे को खड़ा हुआ देखा। गधे को देखते ही उन्हें शास्त्र की यह बात याद आ गई "राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः"—अर्थात् राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो, वह भाई होता है। फिर क्या था, चारों ने उस श्मशान में खड़े गधे को भाई बना लिया। कोई उसके गले से लिपट गया, तो कोई उसके पैर धोने लगा।

इतने में एक ऊँट उधर से गुज़रा। उसे देखकर सब विचार में पड़ गये कि यह कौन है। १२ वर्ष तक विद्यालय की चारदीवारी में रहते हुए उन्हें पुस्तकों के अतिरिक्त संसार की किसी वस्तु का ज्ञान नहीं था। ऊँट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक को पुस्तक में लिखा यह वाक्य याद आ गया—"धर्मस्य त्वरिता गतिः"—अर्थात् धर्म की गति में बड़ा वेग होता है। उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जाने वाली यह वस्तु अवश्य धर्म है। उसी समय उनमें से एक को याद आया—"इष्टं धर्मेण योजयेत्"—अर्थात् धर्म का संयोग इष्ट से करादे। उनकी समझ में इष्ट बान्धव था गधा और ऊँट था धर्म; दोनों का संयोग कराना उन्होंने शास्त्रोक्त मान लिया। बस, खींचखांच कर उन्होंने ऊँट के गले में गधा बाँध दिया। वह गधा एक धोबी का था। उसे पता लगा तो वह भागा हुआ आया। उसे अपनी ओर आता देखकर चारों शास्त्र-पारंगत पंडित वहाँ से भाग खड़े हुए।