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२५०] [पञ्चतन्त्र


थोड़ी दूर पर एक नदी थी। नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था। इसे देखते ही उनमें से एक को याद आ गया—"आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति"—अर्थात् जो पत्ता तैरता हुआ आयगा, वही हमारा उद्धार करेगा। उद्धार की इच्छा से वह मूर्ख पंडित पत्ते पर लेट गया। पत्ता पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा। केवल उसकी शिखा पानी से बाहिर रह गई। इसी तरह बहते-बहते जब वह दूसरे मूर्ख पंडित के पास पहुँचा तो उसे एक और शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया—"सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पंडितः"—अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचाले और आधे का त्याग करदे। यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिये उसकी शिखा पकड़कर गरदन काट दी। उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया। देह पानी में बह गई।

उन चार के अब तीन रह गये। गाँव पहुँचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया। वहाँ उन्हें जब भोजन दिया गया तो एक ने सेमियों को यह कहकर छोड़ दिया—"दीर्घसूत्री विनश्यति"—अर्थात् दीर्घ तन्तु वाली वस्तु नष्ट हो जाती है। दूसरे को रोटियाँ दी गईं तो उसे याद आ गया—"अतिविस्तारविस्तीर्ण तद्भवेन्न चिरायुषम्"—अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है। तीसरे को छिद्र वाली वटिका दी गयी तो उसे याद आ गया—'छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति'—अर्थात् छिद्र वाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं। परिणाम यह हुआ कि तीनों की जग-