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सा सोना हो जायगा। सोना बेचकर मैं बहुत बड़ा घर बनाऊँगा। मेरी सम्पत्ति को देखकर कोई भी ब्राह्मण अपनी सुरूपवती कन्या का विवाह मुझसे कर देगा। वह मेरी पत्नी बनेगी। उससे जो पुत्र होगा उसका नाम मैं सोमशर्मा रखूँगा। जब वह घुटनों के बल चलना सीख जायेगा तो मैं पुस्तक लेकर घुड़शाला के पीछे की दीवार पर बैठा हुआ उसकी बाल-लीलायें रखूँगा। उसके बाद सोमशर्मा मुझे देखकर माँ की गोद से उतरेगा और मेरी ओर आयेगा तो मैं उसकी माँ को क्रोध से कहूँगा—"अपने बच्चे को संभाल।" वह गृह-कार्य में व्यग्र होगी, इसलिये मेरा वचन न सुन सकेगी। तब मैं उठकर उसे पैर की ठोकर से मारूँगा। यह सोचते ही उसका पैर ठोकर मारने के लिये ऊपर उठा। वह ठोकर सत्तु-भरे घड़े को लगी। घड़ा चकनाचूर हो गया। कंजूस ब्राह्मण के स्वप्न भी साथ ही चकनाचूर हो गये।

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स्वर्णसिद्धि ने कहा—"यह बात तो सच है, किन्तु उसका भी क्या दोष; लोभवश सभी अपने कर्मों का फल नहीं देख पाते; और उनको वही फल मिलता है जो चन्द्र भूपति को मिला था।"

चक्रधर ने पूछा—"यह कैसे हुआ?"

स्वर्णसिद्धि ने तब यह कथा सुनाई—