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पेट तो एक ही है, उसमें वह चला ही गया है। तृप्ति तो हो गयी है।"

यह कहने के बाद उसने शेष फल अपनी प्रिया को दे दिया। उसे खाकर उसकी प्रेयसी बहुत प्रसन्न हुई।

दूसरा मुख उसी दिन से विरक्त हो गया और इस तिरस्कार का बदला लेने के उपाय सोचने लगा।

अन्त में, एक दिन उसे एक उपाय सूझ गया। वह कहीं से एक विषफल ले आया। प्रथम मुख को दिखाते हुए उसने कहा—"देख! यह विषफल मुझे मिला है। मैं इसे खाने लगा हूँ।"

प्रथम मुख ने रोकते हुए आग्रह किया—"मूर्ख! ऐसा मत कर, इसके खाने से हम दोनों मर जायंगे।"

द्वितीय मुख ने प्रथम मुख के निषेध करते-करते, अपने अपमान का बदला लेने के लिये विषफल खा लिया। परिणाम यह हुआ कि दोनों मुखों वाला पक्षी मर गया।

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चक्रधर इस कहानी का अभिप्राय समझ कर स्वर्णसिद्धि से बोला—"अच्छी बात है। मेरे पापों का फल तुझे नहीं भोगना चाहिये, तू अपने घर लौट जा। किन्तु, अकेले मत जाना। संसार में कुछ काम ऐसे हैं, जो एकाकी नहीं करने चाहिये। अकेले स्वादु भोजन नहीं खाना चाहिये, सोने वालों के बीच अकेले जागना ठीक नहीं, मार्ग पर अकेले चलना संकटापन्न है; जटिल विषयों पर अकेले सोचना नहीं चाहिये। मार्ग में कोई भी