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[पञ्चतन्त्र
 


दमनक—"आपने अभय वचन दिया है, इसलिये मैं कह देता हूँ। बात यह है कि पिंगलक के मन में आप के प्रति पापभावना आगई है। आज उसने मुझे बिल्कुल एकान्त में बुलाकर कहा है कि कल सुबह ही वह आप को मारकर अन्य मांसाहारी जीवों की भूख मिटायेगा।"

दमनक की बात सुनकर संजीवक देर तक हतप्रभ-सा रहा; मूर्छना सी छा गई उसके शरीर में। कुछ चेतना आने के बाद तीव्र वैराग्य-भरे शब्दों में बोला—"राजसेवा सचमुच बड़ा धोखे का काम है। राजाओं के दिल होता ही नहीं। मैंने भी शेर से मैत्री करके मूर्खता की। समान बल-शील वालों से मैत्री होती है; समान शील-व्यसन वाले ही सखा बन सकते हैं। अब, यदि मैं उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करूँगा तो भी व्यर्थ है, क्योंकि जो किसी कारण-वश क्रोध करे उसका क्रोध उस कारण के दूर होने पर दूर किया जा सकता है, लेकिन जो अकारण ही कुपित हो उसका कोई उपाय नहीं है। निश्चय ही, पिंगलक के पास रहने वाले जीवों ने ईर्ष्यावश उसे मेरे विरुद्ध उकसा दिया है। सेवकों में प्रभु की प्रसन्नता पाने की होड़ लगी ही रहती है। वे एक दूसरे की वृद्धि सहन नहीं करते।"

दमनक—"मित्रवर! यदि यही बात है तो मीठी बातों से अब राजा पिंगलक को प्रसन्न किया जा सकता है। वही उपाय करो।"

संजीवक—"नहीं, दमनक! यह उपाय सच्चा उपाय नहीं है। एक बार तो मैं राजा को प्रसन्न कर लूँगा किन्तु, उसके पास