पत्थर-युग के दो बुत करे भला
? पायिव है, जिसका प्रभाव जीवन के सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत विकास पर पड़ता है। शरीर-धारण के लिए हमे बहुत कष्ट झेलना पडता है। परन्तु शरीर ही से हम चरम आनन्द की प्राप्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। और क्यो न जब हम सारे दिन कठोर परिश्रम करके मानसिक क्षोभ से क्लात और दुश्चिन्तामो से लदे-से घर लौटे तो क्यो न नम-नम आलिंगन का सुख प्राप्त करे? शरीर-सुग की यह नालसा कोई बुरी बात नहीं है। पौर में, मैंने तो सुग लेना नहीं, देना ही अपना ध्येय बना लिया है । यही मेरे प्रेम-ममार की सफलता की कुजी है। इसी ने मुझे रेसा पर विजय दिशाई है। एक दत्त हे उसका पति जो उससे अनिर्वचनीय सुरस तेता रहा, पर उमे तो चशा चाहिए इस सम्बन्ध मे लापरवाह रहा। पौर जब सर मुझे पाया जिसका व्येय सुराना नहीं देना ही था, तो वह इस नई पापा पाकर प्रापे मे न रह सकी। उसका सारा शील, सकोच, मिठा पानी म hि की भाति उड गई, और वह समुची ही तन-मन ने मुगमे नमा गई।