११० पत्थर-युग के दो वुत मेरा हो गया तब क्या प्रेम प्रवल था? न, न, प्रेम नही काम प्रवन था। प्रेम तो उसका वाहन या। कामदेव साक्षात् प्रेम पर सवारी गाठकर पाता था। और कामदेव जब तक अपना अर्घ्य-पाद्य रेमा के म्यीत्त मे न प्राप्त कर ले तब तक उसे विवश किए रहता था। और बडा अद्भुत या यह प्रेम और काम का सयुक्त मोर्चा । पर तव मेंने इसका महत्त्व समझा ही न था। कहना चाहिए, समझने का मुझे होश था न अवकाश । मैं तो सचमुच एक प्राकान्ता या। सच है, सच है, भिन्नलिंगी का यह स्वभाव है। वह भिन्नलिंगी का विरोधी अस्तित्व है। और उसका सम्मिलन दो पर्वतो से टकरा जाने के समान दुर्घर्ष है। उम ममय मैंने यह भीपण सत्य नही समझा या। ग्राज समझ रहा है। परन्तु वह पाशविक प्रवृत्ति अव मो क्यो गई ? क्या प्रेम का रत सूम गया? अपनी बात तो मै कह सकता हूं। मेरे हृदय मे प्रेम का समुद्र उमट रहा है-केवल रेग्मा के लिए । परन्तु उस प्रेम मे वह पाशविक प्रवृत्ति क्यो नही रही है ? रेखा को देखकर, कर अब गरीर मे फुरफुरी क्यो नहीं पाती है ? खून गर्म क्यो नही होता है ? अाक्रमण करने का प्रावेश क्यो नहीं उत्पन्न हो जाता है ? और यदि कभी-कभार होता भी है, तो रेग्वा प्रत्यारमण क्यो नहीं करती? वह तो मिट्टी हो गई है । भला इक- तरफा लडाई भी कही होती हे | बिल्ली जीवित चूहे पर ही तो झपट्टा मारती है । शेर छलागे मारते हिरन हो पर तो उबाल भरता है। शिकार की छटपटाहट ही तो शिकार की जान है । वही मुर्दे का नी गिकार किया - जाता है ? - रेवा का शरीर जी रहा है। पर उमका नारी-भार मर तुना है, या रहा है, या क्या हो गया है, यह म नहीं जान पाता। पहने ही वह चुका हूँ कि वह बीमार नहीं है। कितनी बार मा मे शमा उटती है कि कही वह वेवफा तो नहीं है ? भला रेवा-नमी स्त्री भी नही सफा से नक्ती है ? नहीं-नहीं, नहीं हो सकती। फिर उसे ऐमे प्रामर कहा मिनो
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