पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१४
पत्थर-युग के दो बुत
 

१४ पत्थर-युग के दो वुत गए। रोती रही। उन्होने प्यार किया, मेरे सिर पर हाथ फेरा। उदारता और प्यार का भरपूर वही हाथ | वही स्पर्श | उसमे जैसे मेरे सूखे प्राण फिर से हरे होने लगे-जैसे सूखे ठूठ मे हरी कोपले निकल पाई हो। वे मुझे बाथ-रूम मे ले गए। मुह धुलाया। फिर एक प्रकार से मुझे अक मे भरकर चाय की टेबल पर ले गए। रात के उन्माद का तो अव चिह्न-मात्र भी न था। वही पर्वत के समान महान् और प्यार के मूर्ति- मान् अवतार मेरे साथ बैठे हँस-हँसकर बाते कर रहे थे। अन्तत में दु स्वप्न की भाति उस रात की बात भूल ही गई। वह दिन चला गया । और दिन आए और गए। आते गए, जाते बहुत पाए और गए। वहुत नई बातें पुरानी हुई । पुरानी नई हुई। पर शराव एक दैत्य की भाति मेरे मानस-पटल पर चढ वैठी। कैसी भयानक चीज है यह शराव | क्यो पीते हैं भला ये इसे ? वहुत मन को रोका और अाखिर एक दिन मैंने कह ही दिया, "क्यो पीते हो तुम इस ज़हर को?" वे हँसे । टाल गए । टालते ही गए। परन्तु अतत सवाल-जवाब, हुज्जत बढी तो वे तिनक गए। उन्होने कहा, "ऐसी वाहियात पौरत हो तुम | हर वात का जवाब तलव करती हो। मैं नही पसन्द करता ये सब बाते ।" वस, जैसे प्राची का एक ववडर पाया और उस पहाड की चोटी पर से मुझे नीचे धकेल गया। अभी तक इतना साफ कलाम मैंने उनके मुह से नहीं सुना था। वे भी शायद यह 'फील' करने लगे। नर्म होकर बोले, "मोमाइटी मे यह सब कहना पडता है डालिंग, तुम इन बातो का सोच- विचार न किया करो। इसके सिवाय इससे मेरी सेहत भी ठीक रहती है। ग्राफिम मे मुझे कितना काम करना पडता है, कितनी जिम्मेवारिया मेरे मिर पर है। ज़रा-सा शुगल न करू तो बस मर ही मिट् ।" ये शायद ठीक ही कहते हैं, यह मोचकर मैं चुप हो गई। पर मेरे मन में जो चोर बैठा सो बैठा । रात को गब वे क्लव ते पाते तो मैं मत दृष्टि से उनकी प्रत्येक हरकत को देखती। मेरी सदा की प्रसन्नता गायब हो नाती और मेरा मन पीक से भर जाता। वे भी यह बात समझ गए और -