पत्थर-युग के दो वुत । मुझसे खिचे-खिचे रहने लगे। और यो मिश्री मे वास की फास का प्रवेश हो गया। मेरा सोने का महल मलिन होने लगा। मेरा उल्लास वुझने लगा। में खोई-खोई-सी रहने लगी। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा-जैसे यह कम्बल शराव एक व्यवधान वनकर हमारे बीच या गई है। में चाहती थी कि मैं उनसे झगडा न करू । पर अब वे और देर से घर लौटने लगे। कभी-कभी प्राधी-आधी रात तक मुझे खिडकी मे मुह दिए वैठे रहना पडता था, उनके लिए खाना रक्खे भूखी वैठी रहती थी । अव उनके मन मे मेरे लिए वह सहानुभूति न थी। वे पाते और मैं उदास और ठडे दिल से खाने को कहती तो वे रूखे स्वर मे कहते, 'मेने तुमसे कई बार कहा है, मेरी प्रतीक्षा मत किया करो, खा-पी लिया करो। मैं वहा खा लेता है । पर तुम सुनती ही नहीं।' भला कैसे सुन् मैं | मर्द वन जाऊ ? गौरत का स्वभाव ही छोड दू वे यह कहकर सोने के कमरे मे चले जाते और मै विना ही खाए-पिए एक अोर पड रहती। आए-दिन यही होता और कभी-कभी दो-दो दिन वात करने की नौवत न पाती। आखिर मैं करू क्या जाऊ भी कहा सोच भी क्या? जीवन तो वध चुका। हृदय परकैच हो चुका। अन्त में हंसी और पासुनो का गठवन्धन हो गया । मैं हँसती भी, रोती भी। प्यार का दर्द अव मेरी बीमारी बन गया। पर इसका इलाज क्या या फिर दूसरा बर्थ-डे अाया, और वे पाच सौ रुपये मेरे हाथो मे यमा- कर चल दिए। मैंने कहा, "मुनो।" वे रुके, कहा, "तुम्हारे हाथ जोडती हू। इस वार यहा डिक मत करना।" "अच्छा कहकर वे तेजी से चल दिए। उनका इस तरह जाना, अच्छा' कहना मुझे कुछ भाया नही-न जाने क्यो किसी अज्ञात भय ने मेरा मन मनोम दिया। मैं बाजार गई, सव सामान लाई। मन में उडाह भी था, और भय भी था। न जाने ग्राज की रान कैनी बीतेगी। पिछले साल की सव वाते याद पा रही थी, और मेरा कोजा पापहा था। फिर भी मैं यन्नवत् तव तैयारी कर रही थी। ? 7 ? "क्या
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