पत्थर-युग के दो वुत मेहमान आने लगे पर उनका कही पता न था। मेरे पैरो के नीचे से धरती खिसक रही थी। लोग हँस-हँसकर बधाइया दे रहे थे, चुहल कर रहे ये। मुझे उनके साथ हँसना पडता था, पर दिल मेरा रो रहा था । यह तो बिना दूल्हे की बरात थी। बडी देर मे पाए उनके अन्तरग मित्र दिलीप- कुमार। आगे बढकर उन्होंने सब मेहमानो को सम्बोधित करके कहा, "वन्घुनो और बहिनो, वडे खेद की बात है कि एक अत्यावश्यक सरकारी काम मे व्यस्त रहने के कारण दत्त साहब इस समय हमारे वीच उपस्थित नहीं हो सकते हैं। उन्होने क्षमा मागी है और अपने प्रतिनिविस्वरूप मुझे भेजा है। खूब खाइए-पीजिए मित्रो।" इतना कहकर वे मेरे पास आए। मुझे तो काठ मार गया। मैंने कहा, 1 "क्या हुआ ?" 1 "कुछ बात नही भाभी, उन्हे बहुत ज़रूरी काम निकल पाया। आयो, अब हम लोग मेहमानो का मनोरजन करे, जिससे उन्हे भाई साहब की गैरहाजिरी अखरे नही।" और वे तेजी से भीड मे घुसकर लोगो की पाव- भगत मे लग गए। निरुपाय हो छाती पर पत्थर रखकर मुझे भी यह करना पडा । पर मैं ऐसा अनुभव कर रही थी जैसे मेरे शरीर का सारा रक्त निचुड गया हो, और मैं मर रही होऊ । जैसे-तैसे मेहमान विदा हुए। सूने घर मे रह गए हम दो-दिलीप- कुमार और में। उन्होंने मेरे निकट पाकर कहा, "यह क्या भाभी, तुम्हारा तो चेहरा ऐसा हो रहा है, जैसे महीनो की बीमार हो। क्या तवियत खराव है तुम्हारी ।" "नहीं, मै ठीक है, पर वे कब तक लौटेंगे?" "उन्होने कहा था कि छुट्टी होते ही मै आजाऊगा। अब जब तक भाई साहब नहीं आ जाते, मै यहा हू । आप चिन्ता न कीजिए। लेकिन आपने तो कुछ खाया-पीया ही नहीं है। इतने लोग सा-पी गए, जो मालिक है वही रह गया। तो कुछ खा लीजिए नमै लाता हू।" पर मैंने उन्हें रोककर कहा, "नहीं, मैं कुछ न खाऊगी, पाप वैठिए।" मैंने एक कुर्सी की ओर इशारा .
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