पत्थर-युग के दो वुत १७ किया । कुर्सी पर बैठते हुए उन्होने कहा, "भाभी, खाया-पीया तो मैने भी कुछ नहीं। भाई साहब के वर्थ-डे पर हमी दोनो घाटे मे रहे।" वे खिल- खिलाकर हँस पडे । मैंने उठते हुए कहा, "आप खाइए न, मैं लाती हू।" पर उन्होने हठ ठानी-जब तक मैं नहीं खाती वे न खाएगे । लाचार मुझे भी बैठना पडा। कुछ खाया, पर मेरा मन कहा-कहा भटक रहा था। कहा है वे ? ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे प्राण उनमे उलझे हुए हो और वे उन्हे निर्दयता से दूर बैठे खीच रहे हो। मैं चाहती थी कि ये दिलीप- कुमार यहा से चले जाए और मैं जी भरकर रोऊ । पर वे नही गए । मेरे कहने पर भी कहने लगे, "अापको अकेला छोड- कर कैसे जा सकता हू, वडो खराव बात है-~-इतनी देर हो गई, अभी नहीं आए।" हजारो प्रश्न मेरा मन कर रहा था, पर मेरी वाणी जड थी। मैंने अपनी सारी शक्ति अपने ग्रासुमो को रोकने मे लगा दी थी। रामचरण पत्थर की मूर्ति की भाति वराडे मे चुपचाप खडा था। सव नौकर-चाकर जाकर सो रहे थे, पर यह एकानप्ठ ब्राह्मण सेवक चुप- चाप खडा था-कदाचित् मेरी वेदना का मूक भागीदार । उसको उपस्थिति से मुझे ढाढस वध रहा था। अन्तत वे पाए, मगर बदहोश होकर, और रामचरण ने उन्हे उठाकर पलग पर डाल दिया। मेरा मुह ठोकरे के समान काला हो गया। मैंने वाहर पा, दिलीपकुमार से कहा, "अव आप भी जाइए," और मैं उमडते आसुप्रो के वेग को न मभाल सकने के कारण भागकर अपने शयनगृह मे घुस गई। न जाने कितना रोई। यकावट ने मेरा उपकार किया, मैं सो गई। और फिर साधारण प्रभात था। वे प्रसन्न और स्वम्म चाय पर बैठे ये। मैं उनके सामने प्राना नहीं चाहती थी, पर उन्होने वुला नेजा। मैं अाकर चुपचाप बैठ गई। केतली से पाले मे चाप उडे नते हुए उन्होन कहा, "कहो, कैसा रहा तुम्हारा कल का जाना सब ठीक-ठार रहा न?" मैने जवाव नहीं दिया। उनकी बात मे कितना परा व्यग्य । पा -
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