पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१६३

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सुनीलदत्त ठीक है, दिन निकल आया। धूप खिडकियो के पर्दो मे छनकर पा रही है। लेकिन सिर मे वडा दर्द है, ठीक है, याद अाया, रात वहुत पी गया और आलमारी से टकरा गया। लेकिन रेखा कहा है ? ग्रोह, वह तो रात घर मे थी ही नही । वाह, मैं रात-भर फश पर ही शायद पटा रहा। अव उठना चाहिए। वह सामने शृगार-टेवल है, उसके शीशे मे देस । प्रोत, वडी विकराल सूरत बन गई। शायद सिर फट गया। कोई बात नहीं। अभी साफ किए डालता है। कौन द्वार खटखटा रहा है ? टहरो उरा, मैं बाथरूम मे हू, जरा ठहरो। यही वाथरूम है। पहले सून घो डालना चाहिए । वडा भारी जख्म हो गया है। लेकिन भर जाएगा। बडे-बडे उम भर जाते है। पर दिल मे जो घाव रेखा कर गई, वह नहीं भरेगा। तो चली ही गई वह, राय के यहा । इतना तो मैने कभी नहीं नोवा पा । रेना ऐसी थी भी नहीं । फिर राय की मुझसे क्या समता' वह वा बदन्त लेकिन यह हो कैने गया? सोचा तो परता पा रेवा. ढग देखकर कि कही वह वेवफा तो नहीं है, पर जब-जव चे वाते नन न उठती थी, मैं अपने ही को धिक्कारता था। मे तो नमनता पारि ही मेरे ही मे त्रुटि है। इसी ते रेखा मेरी होकर भी नुनने दूर हो गई है। पर रेखा पर-पुत्पगामिनी बन जाएगी, यह तो म स्वप्न ने नी नही नाव - आदमी है सकता था। राप पर मैने विश्वास किया। दि -हिं, दुनिया ने नव रिनी भने आदमी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। राव नेरा पुराना दोस्त है,