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पत्थर-युग के दो बुत
 

१५८ पत्थर-युग के दो बुत en । पति अहसान है मेरे उस पर | पर खैर, जो होना था वह तो हो ही गया। अब तो रेखा को विसर्जन करना होगा, जैसे देवी की सजी-धजी मूर्ति को गगा मे विसर्जित करना होता है। पर मै रेखा के बिना जीऊगा कैसे ? नहीं, नहीं जी सकता है। किसी तरह नही। मै मूर्ख समझता या कि रेखा मेरे विना नही जी सकती, सो वह तो बात अब खत्म हुई। रेसा चली गई- मोहनभोग छोडकर गोबर खाने के लिए। लेकिन मैं यह कैसे कह सकता | मैं उस पर प्रतिवन्ध लगानेवाला कौन हू | पर मैं पति तो क्या स्त्री पर प्रतिबन्ध नही लगा सकता? उसे एकनिष्ठ होने को बाधित नही कर सकता? तब वह पत्नी क्या हुई, वेश्या हुई। ठहरो, मैं अपने दोषो को देख लू । मैं शराब पीता हू, पीता रहा है । मेरी हैसियत के बहुत लोग पीते हैं। केवल इसलिए नहीं कि हमारे मस्तिष्क पर काम का जो भारी भार है, उसे सहन करने की सामर्थ्य हममे बनी रहे, और हम रात पाराम से गुजार सके, अपितु इसलिए भी कि यह एक सोशल सभ्यता का प्रतीक भी है। मानता ह कि मै कभी-कभी बहुत पी जाता ह, पर इससे मैने किसी पर कोई अनानार तो नहीं किया, किसी का कुछ बिगाडा तो नही? इतनी-सी ही बात मे पत्नी पति से वेवफा हो जाएगी? दूसरे पुरुप की अकशायिनी बन जाएगी? तव तो भने घरो की स्त्रियो की कोई मर्यादा ही नहीं रह सकती। हो सकता है, शराब पीना एक अनैतिक काम हो, पर किसी विवाहिता पत्नी और माता का परपुरुप की प्रकशायिनी होना क्या है ? उसे मैं कोरा अनैतिक काम नही कह सक्ता । वह एक भयानक अपराध है और उसका दण्ड मृत्यु है। तब क्या मैं रेवा को मार डान ? रेखा को? जिसे मैंने प्राणो से भी बढकर प्यार किया, जिसके लिए मैं पागल बन गया, जिसके बिना मुझे न दिन मे नैन न रात को नीद, तिसके नरम-गरम प्रालिंगन की स्मृति में प्राण उल्लाम ते भर जाते है, जिसकी मधुर वाणी और प्यार-भरी चितवन प्राणो मे नवजीवन फकती रही है, उमे मै कैसे मार डाल सकता ह तव अपने ही को क्यो न खत्म कर द पाजकल तो मरने में जरा-सा 2 ?