सुनीलदत्त सब कुछ निश्चय करके ही मैं घर से निकला था। सब बातो पर आगे- पीछे मोचकर मैंने अपना कर्तव्य निश्चय कर लिया था। में पागल नही था, सब बातो को ठीक-ठीक समझता था। रेसा पर में हाथ नहीं उठा सकता या। बहुत चाहा कि उसे भूल जाऊ, उसका प्रेम मेरे हृदय से निकल जाए, पर इसमे मुझे सफलता नहीं मिली। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह बहुत ही विचित्र वात है कि मैं एक औरत के लिए अपने समूचे जीवन की बलि देने को तैयार हो गया। पर क्या किया जा सकता था। मैंने समझ- दारी पोर धीरज मे काम लिया, और अपने को परिस्थितियो के अनुकूल बनाने की भरसक चेप्टा की। मैने अपने मन के सहग विरोध को काबू मे रखने के नि हद दर्जे तक मन पर नियन्त्रण रमा। स्वीकार करता ह, कुछ ऐसे लोग हुग्रा करते है जिन्हे ज्ञान-बुद्धि का इतना प्रबल प्राकपंण होता है कि वे मब असुविधाम्रो को बर्दाश्त कर लेते है। परन्तु ये सब बाते ऐसी हैं जो मामातिक दृष्टि मे दुसरो मे छिपानी पटी। ग्राप शायद यह विश्वास न करेंगे कि मुझे कुछ बाते अपने-मापसे भी छिपानी पडी या मुझे अपने-आपको घोल में रवना पडा- -क्योकि उन वातो को म अपने लिए ठीक नहीं मानता या । म न्वीकार करता है कि जीवन के मानमिक पहलुग्रो मे मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही, और मन के मनोवैज्ञानिक ढाचे मे म अपरिचित ही रहा । मन मे वस्तु की अनुभूति, विचार पोर इच्छा के प्रक्रम होते। उसमे प्रचंतन इच्छाए और प्रचतन पिचार भी होते है। उनमे रहत-ने काम-पाग होते ह और ये काम-ग्रावेग मनुष्य के मन मे कना-नमति पोरगीपन में
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