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पत्थर-युग के दो बुत
 

३० पत्यर-युग के दो बुन पत्नी के रूप मे उसे ग्रहण करने पर मैंने उसके सम्चे प्यार का मूल्य एडवास मे ही चुका दिया है । अव तो वह प्यार मेरी ही मपत्ति है । इमी- पर उसका विद्रोह है। मै समझता हू, विद्रोह ठीक ही है-सभी तो पति यही समझते हैं। औरत भी समझ जाती है—मेरा यह प्यार तो बिक चुका , अव इसपर मेरा अधिकार ही नही रहा। परन्तु विक्री का दाम तो नगद कुछ मिला नही, इसीपर वह विद्रोह करती है—उसमे से प्यार चुरा- चुराकर औरो को वेचती है, और उसका जो दाम मिलता है, कम या ज्यादा, उसी से गपना काम चला लेती है। एक बात मै और कहू, जिसे मैंने बडे ही परिश्रम से जाना है। पौरत को अपने-मापसे बहुत कम प्यार होता है। वह अपने को प्यार करती ही नहीं, यह उसका दुर्भाग्य है। इसी से वह बात-बात पर जान देने पर उतारू हो जाती है । वहुत-सी तो जान दे ही देती है। अपने को प्यार करनेवाली पोरते विरत ही मिलती है। उनकी शिक्षा-दीक्षा, मामाजिक स्थिति सब ऐसी हैं जो उन्हे प्रति क्षुद्रदृष्टि बनाए रसती है। वे न जीवन के ठीक-ठीक महत्व को समझ पाती है, न जीवन के सच्चे ग्रानन्द ना उन्हे भोग प्राप्त होता है। काश | औरत को विवाह-वन्धन मे जकडकर उसे परकंच न कर दिया होता। यह कमकर पति की दुम के माय न वापी गई होती। रगीन तितली की भाति वह मधु-लोलुप भौरी के साथ केवल रसपान करती, जीवन का मानन्द लेती पौर देती। देवी नाम मायंक करती। । ,