माया - राय से मैंने लव मैरिज की थी-अपने माता-पिता की स्वीकृति और रजामन्दी के विरुद्ध। पिताजी चाहते थे, किसी अच्छे-भले घर मे मुझे घुसेड- कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाए। भले घर से मतलब उनकी नज़र मे था जहा परिवार मे मधुमक्खी के छत्ते के समान बेशुमार औरत-मर्द और वच्चे भरे हुए हो, खूव रुपया हो और शानदार मकान-कोठी हो-मोटर हो । जहा शहद भी टपकता हो और मक्खिया भी डक मारती हो । एक हंस रहा हो, एक रो रहा हो, एक गुमसुम हो, एक वमकार रहा हो, एक मर रहा हो, एक जन्म ले रहा हो। इसे वे कहते थे भरा-पूरा परिवार। पर मुझे इस मधुमक्खी के छत्ते की एक मक्खी बनना स्वीकार न था। दुनिया मैंने देखी तो न थी, पर कुछ-कुछ समझी थी। जब मै एम० ए० मे पढ रही थी, तभी मेरी एक सहेली का व्याह ऐसे ही भरे-पूरे घर मे हो गया था। वह वडी अच्छी लडकी थी, निहायत खुशमिजाज । विनोदी स्वभाव और बाल- सुलभ सरलता की मूर्ति थी-सुन्दर भी थी और प्रतिभा सम्पन्न भी थी। ० ए० मे वह प्रथम और मैं द्वितीय आई थी। व्याह के समय वह बहुत खुश थी। दूल्हा उसे पसन्द था । अभी हाल मे विलायत से डाक्टरेट लेकर पाया था। सावला-सलोना कटीला जवान था। हाज़िरजवाव और सभ्य- शिप्ट, शीन-काफ से दुरुस्त । दूल्हा मुझे भी पसन्द आ गया था और मैंने ऐसा दूल्हा मिलने के लिए सखी को बधाई भी दी थी। पर व्याह के छ महीने बाद जब वह ससुराल से लौटकर आई तो उसके रंग-ढंग सब बदले हुए थे । वह सुस्त, उदास और जीवन से उकताई हुई-सी, कुछ खोई हुई- वी० 1
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