पत्थर-युग के दो वुत ४३ - 1 सी हो रही थी। उसका वह उन्मुक्त हास्य, दिल खोलकर उत्साह से वात- चीत का ढग सव गायव हो चुका था। मैंने कहा, “यह क्या हुआ ? अभी जवानी तो चढी ही नही, और तू बुढिया भी हो गई ।" उसने बहुत रोका अपने मन को, पर फूट पडी । उसने उस भरे-पूरे घर का बखान किया जो कलह, ईर्ष्या, द्वेप और अशान्ति का अड्डा बना हुआ था । जहा व्यक्ति की कोई मर्यादा न थी। जहा प्रत्येक स्वामी था, प्रत्येक असतुष्ट था, प्रत्येक खड्गहस्त था । उसने अपनी जिठानियो की करतूतें बताईं, जो सके रूप को ईर्ष्या से और सभ्य-शिष्ट रहन-सहन को क्रोध से देखती थी। उसके वनाव-सिंगार यहा तक कि साफ-सुथरे कपडे पहनने तक को वे वेश्यावृत्ति कहती थी। वे उसकी एकान्तप्रियता का मजाक उटाती। उने घमडी और छोटे घर की कहकर तिरस्कार करती थी। सास थी, जिनके सामने सव वहुए या तो पालतू विल्लिया थी, या कवूतरी । उन्हे सिफ दर मे बैठकर गुटरगू करने की स्वतन्त्रता थी। सास के सिर से पके वाल उवा- डना और उसकी मुसाहिवगीरी करना उनका प्रधान कार्यक्रम या। नौकर- चाकर चोरी करते । वहुए फूहड ढग से चीज़ो की वर्वादी करती । वच्चे अब्बल दर्जे के जिद्दी । वच्चो को लेकर दिन मे दस वार त्-त्-मैं-मैं होती। पति घर मे न रहते थे। दूर नौकरी पर थे । सास ने बह को उनपे नाथ भेजने से इन्कार कर दिया था। बडी कठिनाई से वह पिता के साथ या पाई यो । उसके ससुर ने सौ हुज्जतें की थी-'पाप क्यो ले जाते है ? अापने व्याह कर दिया, छुट्टी हुई । सयानी लड़की अपने घर ही भली है।' तीर- तमचे भी चला दिए ससुर ने—'दान-दहेज़ कम दिया था। क्नो-जैसा व्यवहार था।' और भी बहुत-सी वातें । वेचारी मेरी सखी का पिता बत अपमानित होकर किसी तरह पद्रह दिन के लिए बेटी को घर लाया था। मेरा हृदय न जाने कैसी वितृष्णा से भर गया उसकी वातो वो नन कर । परन्तु दूसरी वार डेढ वरस वाद जव वह अपने छ मान नेपालम को गोद मे लेकर पाई तब तो उसका रहा-महा पानी नी तर पाना। उनकी ग्राखो के चारो ओर स्याही फैल गई पी। आखो मे अब नेज नो पा
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