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पत्थर-युग के दो बुत
 

६२ पत्थर-युग के दो वुत इसी से मुझे ज़रा हिम्मत भी हुई । न जाने क्यो-मेरे मन मे माया पर एक दावेदार होने की भावना छा गई । और जब मैंने वेवी की शिका- यत के बाद उससे बात की, तो मैं स्वीकार करता हू मैं गधा बन गया, मने अपने मस्तिष्क का सतुलन खो दिया। बहुत देर तक वह चुपचाप पत्थर की मूर्ति की भाति बैठी रही। एक शब्द भी उसने मुझसे नही कहा। पर उसकी इस चुप्पी से मैं और चिढ गया। मुझे आश्चर्य है कि मैंने उसपर हाथ नही छोडा। मैं स्वीकार करता हूं, मैं मानसिक उत्तेजना के उस घरातल पर पहुच गया था कि यदि मेरे पास उस समय रिवाल्वर होता तो मैं विला शक उसे गोली मार देता। आप मेरी बात पर हँसेंगे ।औरतो के सम्बन्ध मे मेरे विचार आप जान चुके है और अब मेरी ये बातें तथा मेरे मन को यह स्थिति आपको सर्वथा असगत प्रतीत हो रही होगी , पर सस्कारो की दासता से मैं भी मुक्त नहीं है। विवाहित पत्नी पर पति के अधिकारो को अभी मेरे मन ने त्यागा नहीं है। सब युक्तिया एक ओर है, मानसिक दासता दुसरी ओर। मुझे याद अाता है, मैने बडी सख्त वाते भी माया से कही। लानत- मलामत भी की। फिर भी वह चुप रही। मैं समझता है, उसपर में उम वक्त हाथ भी उठा बैठता, या गोली चला देता-तब भी वह वैसी ही निश्चल-अकम्पित रहती, कुछ भी प्रतिकार न करती। उसके नेत्रो में न भय था, न लज्जा थी, न सकोच था, न क्रोध या। मैने उस दाण उमके नेत्रो मे एक अविचल दृढता को देखा। और उससे मेरा हृदय काप उठा। एक भावी भय की प्राशका से मैं अभिभूत हो उठा और अपनी मानगिक चचलता और गुस्से को काबू मे न रख सकने के कारण तेजी से उठकर घर से वाहर चला गया। वडी रात बीतने तक मैं इधर-उधर घूमता-भटरता रहा। कही भी मेरा मन नहीं लग रहा था। म नहीं जानता कि उस वक्त मेरे मन में गुन्सा भरा था या दुख । एक-दो बार मन हुग्रा, किमी दौडती दुई मोटर