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पत्थर युग के दो बुत
 


बाधक न हुए। मेरी हर त्रुटि पर वे हँस देते। मेरे हर हठ को वे आँखों पर लेते। सयानी होने पर मैं घर के कामों में माँ का हाथ बँटाती। पिताजी के लिए एकाध सब्जी अपने हाथ से जरूर बनाती। पिताजी मुझे 'राजा' के नाम से संबोधन करते थे। वे मुझे पुत्री नहीं पुत्र मानते थे। उनके मुँह से 'राजा' सम्बोधन कितना प्यारा लगता था मुझे। आज भी मेरे कानों में वह प्यारा सम्बोधन गूँजता रहता है। चाय को तनिक देर हुई कि पिताजी कहते––राजा बेटा आज हमें चाय नहीं मिली। और मैं घर-आँगन में अपनी अल्हड़ हँसी बखेरती जाती उनके पास चाय का प्याला लेकर।

वे दिन मेरी आँखों में अब भी बस रहे हैं। अभी केवल पाँच बरस तो हुए। मेरे रक्त की प्रत्येक बूँद में रमे हुए हैं वे दिन, भला भूल कैसे सकती हूँ। परन्तु मुझे इस ज्वलन्त वैभव में धकेलकर जैसे वे चिरपरिचित प्रिय दिवस चले गए, वैसे ही चले गए मेरे वे माता-पिता––मेरी आत्मा के आधार और मेरे जीवन के निर्माता, प्रेम, न्याय, तप और आत्मदान के महादाता।

उस घर में और इस घर में भला क्या समता? उस जीवन और इस जीवन में तो ज़मीन-आसमान का अन्तर है। अब तो मैंने अपने को इस जीवन का अभ्यस्त बना लिया है, सब कुछ परच गया है; पर तब तो सब कुछ पराया-सा, अटपटा-सा, अपरिचित-सा, अग्राह्य-सा लगता था।

हाँ, मैं उनकी बात कर रही थी। यही बात उनके सम्बन्ध में थी। बहुत साहस करने पर भी मैं उनके निकटतम न हो सकी, बहुत दिनों तक। ऐसा प्रतीत होता था––एक पर्वत मेरे सम्मुख खड़ा है, कैसे इस पर चढ़ूंगी! मेरे नन्हें-नन्हें पैर घायल हो जाएंगे। कितना ऊँचा, कितना बड़ा, कितना कठोर है यह पर्वत! फिर भी सुशोभन है, दर्शनीय है, भव्य है। ऐसा ही तो दुरूह था उनका व्यक्तित्व! पर वे मेरे हैं, यह एक बात मन में दिन में सौ बार उठती थी––वे आँखों के सामने रहते थे तब भी, और नहीं रहते थे तब भी। यही बात माँ ने मुझसे कही थी, जब उन्होंने आँसुओं