से अपनी छाती तर कर ली थी। और वही एक बात कहकर मुझे उनके साथ भेज दिया था। वे मेरे हैं, यह तो ख़ैर मैं समझ गई, जान गई, किन्तु क्यों हैं यह न जान पाई––न तब, न अब, पांच साल बीत जाने पर भी। कभी सोचती, मेरे स्वामी हैं, पति स्त्री का स्वामी होता है––यह तो मैंने बहुत पुस्तकों में पढ़ा था, बहुत जगह सुना था, तो मैं सोचती, वे मेरे स्वामी हैं, फिर सोचती, पति हैं। स्वामी क्यो! पर ज्यों-ज्यों निकट होती गई, परदा दूर होता गया, तन का भी और मन का भी। तब सोचने लगी––स्वामी नहीं, सखा हैं। ऐसे भी क्षण आए जब सोचना पड़ा––सब-कुछ हैं। अथवा हम दो नहीं हैं, अभिन्न है––वे मैं हूँ, और मैं वे हैं।
उन्होंने जब पहली बार मुझे अपनी बलिप्ठ भुजाओं में कसकर मेरे अछूते अधरों पर अपना प्रथम नर्म-गर्म चुम्बन अंकित किया, तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अकस्मात् ही किसी दुर्दम्य शक्ति ने मुझे उछालकर उस दुरारोह पर्वत की उत्तुंग चोटी पर फेंक दिया। भीति और आनन्द ने मुझे झकझोर डाला। मैं हाँफने लगी। परन्तु इसके बाद मैं जैसे वह छोटी-मी निरीह बालिका न रह गई। नारी की गरिमा ने जैसे मुझे दबोच लिया। मैंने उस पर्वत के उत्तुंग शिखर पर से देखा, सारा संसार तुच्छ-सा, छोटा-सा लग रहा था। और इसके बाद मैंने देखा उनका स्वच्छन्द हास्य, उज्ज्वल आह्लाद, उल्लास, उज्ज्वल प्यार और प्यार का अकथ उन्माद, विलास और भोग का ऐश्वर्य जो अब मेरे चारों ओर बिखरकर बह रहा था, समेटे से न समेटा जा सकता था। अनिर्वचनीय था वह। मै छक गई थी, किन्तु वे! वे बिखेरे जा रहे थे, आनन्द का, प्यार का, उन्माद का अटूट प्रवाह, पहाड़ी निर्झर की भांति झर-झर-झर-झर।
यह सब उनके उस रूप से भिन्न था, जो मैने आने पर देखा था, जिसने मुझे भयभीत कर दिया था। मैंने जाना––उनकी वह महत्ता, शान और प्रभाव औरों के लिए है, मेरे लिए प्यार है, हास्य है, आलिंगन है, चुम्बन हैं, आत्मार्पण है। यह देखकर मेरी भीति भाग गई। अभिन्न दृष्टि उदय हुई। प्यार का एक अंकुर उगा और देखते ही देखते मुझे––मेरे