पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/७३

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पत्थर-युग के दो बुत
७१
 

पत्थर-युग के दो वुत ७१ 1 की मा हू, सच्ची मा हू। कानून की कोई धारा, समाज का कोई नियम उसने मेरा विच्छेद नहीं करा सकता। तव यह बात मैं नही जानती थी, अब जान पाई है कि विवाह व्यक्ति- गत सम्वन्ध नही है, सामाजिक सम्बन्ध है । नर-नारी का सम्बन्ध वेशक व्यक्तिगत है, पर पति-पत्नी का सम्वन्ध व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक है। नर-नारी पृथक् वस्तु है और पति-पत्नी पृथक् । हम दोनो~राय और मैं--- नर-नारी के रूप मे अमनुष्ट न थे, सतुष्ट थे। एक मर्द की हैसियत ने राय श्रेष्ठ व्यक्ति है, और मेरे नारीत्व पर भी उन्हे कभी कोई असतोप नहीं हुआ। असन्तोष हुआ पत्नी-पति के वीच । परन्तु अव मै नोचती हू, नर- नारी जहा स्वेच्छा से मिल और विच्छिन्न हो सकते है वहा पति-पत्नी नही, क्योकि वह अपने परिवार मे धसी हुई है, समाज मे गुपी हुई है। वह अपने स्थान पर स्थिर है, जैसे एक ईट मसाले मे जमकर एक स्थान पर अचल हो जाती है। मैं वेवी की बात कह रही थी। वेवी अव उन्नीन वरन पी है, वच्ची नहीं है । और घर मे वही सबसे अधिक मेरे विरुद्ध थी। राप को वमा ने प्रति मेरी आसक्ति का पता बहुत पहले से लग गया था। पर वे याचे चुरा जाते थे, अपनी कमजोरी वे जानते थे। परन्तु वेवी इन वानो का मन क्या जाने ! उसका मन तो कच्चे दूध के समान स्वच्छ वा । उसे अपनी ना की यह अनीति कैसे बर्दाश्त हो सकती ची, और उसने मेरा नान्वित विरोध किया। और उसका यह विरोध-भाव तो एक प्रकार ने मेरे प्रति प्रगाट प्रेम और भक्ति का ही द्योतक पा। यह नहीं जिन पर बात नहीं जानती थी। पर विधा क्या ना नक्ता पा । मेरे लिए नरा बाग न ना। मैं यह भी जानती दी कि राय-जने पति बार नीला-जैनी पुत्री को वान, उनने विच्छेद करना बहुत कठिन है और एक दिन वह मनि-दुन्न न मुझे करना ही पडेगा । म धीरे-धीरे अपने मन को नरे नित नमा रही पी-योर शायद समय ने दुष्प्रपन ही वह नना का अस्ति; सिर्फ बेवी की बात नहीं, और भी दिनदाह । वनमान कार