३४-३५] सुधाकर-चन्द्रिका। ५३ - 9 नाशपाती लेते हैं, परन्तु यहाँ कवि का यही अभिप्राय जान पडता है, कि किसमिस (महुआ के ऐसा) और सेव (अमरूत के ऐसा ) नया पत्ता लेते-ही फरते हैं)। दाडिम (अनार) और दाख (अङ्गर) को देख कर, (उन में ) मन रक्त (राता) हो जाता है, अर्थात् लग जाता है। यही मन चाहता है, कि इन्हें देखा कौजिए ॥ हालफा-रेवडी जो लगी है, वह अत्यन्त शोभित है। और केले का घौर (मारे बोझों के ) झुक ( उनइ) रहा है। दूत, कमरख, नउँजी, राय-करौंदा, बेर, और चिरौंजी ये सब फरे हैं । संख-ट्राव और छोहारा भी (उन बगीचों में ) देखे जाते हैं, अर्थात् हैं, और खट्टे मोठे, जितने खजहजा (मेवे के वृक्ष) हैं, सब वहाँ पर देख पड़ते हैं, अर्थात् ऐसे मेवे के कोई वृक्ष नहीं जो वहाँ पर न लगे हों। (मालो लोग ) कूओं में खाँड डाल कर (मेलि ), हजारा से (इन मेवे के वृक्षों में) पानी देते हैं । और रहंट की घडी लगी हुई हैं, जिन से अमृत-रूपी जो बेलि (वल्ली लता) हैं, उन्हें मौंचते हैं ॥ ३४ ॥ चउपाई। पुनि फुल-वारि लागु चहुँ पासा। बिरिख बेधि चंदन भइ बासा ॥ बहुत फूल फूलो घन-बेइलो। केवरा चंपा कुंद चवेइली ॥ सुरंग गुलाल कदम अउ कूजा। सुगंध-बकाउरि गधरब पूजा ॥ नागेसर सतिबरग नेवारी । अउ सिंगार-हार फुलवारौ ॥ सोनिजरद फूलो सेवती । रूप मंजरी अउरु मालती ॥ जाही जूही बकुचन्ह लावा। पुहुप सुदरसन लागु सोहावा ॥ मउलसिरी बेइलि अउ करना। सबइ फूल फूले बहु बरना ॥ दोहा। तेहि सिर फूलचढहि वेद जेहि माहि मनि भागु। अाहिँ सदा सुगंध भइ जनु बसंत अउ फागु ॥ ३५ ॥ घन-बदली, केवरा (= केवडा), चम्पा, कुन्द, चवेंदूलौ (= चमेली), सुरंग, गुलाल, • कदम ( कदम्ब ), कूजा, सुगंध-बकाउरि (= सुगन्ध-वकावलौ = गुल-बकावली), नागेसर, मतिबरग (= सदबरग), नेवारी, सिंगार-हार (= हरसिंगार = पारिजाता), सोनिजरद
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