१६८ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०२-१०३ ( सो जान पडता है, कि दूसौ मनोरथ से वे लोग आरे से शरीर को चिरवा कर प्राण दिये कि) क्या जाने वह (= सो) पद्मावती (मेरा-हौ) रुधिर ले कर (अपनी माँग में ) सेंदुर को दे, अर्थात् उन तपस्वियों का यही मनोरथ है, कि पद्मावती के साथ विवाह हो जाना यह तो अत्यन्त दुर्घट है, परन्तु यदि मेरे शरीर के रक्त-सेंदुर से भौ वह अपनी माँग भरे तो भी मैं अपने को भाग्यवान् समझंगा। तपखौ लोग जब प्रयाग में आरे से अपनी शरीर चिरवाते थे, उस समय उस कौतुक को देखने के लिये बहुत से लोग एकट्ठाँ होते थे, और उन को महानुभाव समझ कर उन के शरीर के रक्त का अपने अपने माथे में तिलक करते थे, और नारी लोग अपना अहिवात अचल होने के लिये उसौ रक्त से अपनी अपनी माँग टोकती थौं। दूस लिये कवि को उक्ति बहुत-ही सयुक्ति है॥ वह माँग द्वादशादित्यवर्ण-सुवर्ण हो कर सौभाग्य ( माहाग) चाहती है, अर्थात् सुन्दर पति चाहती है, जिस से उस को और भी कान्ति बढे जैसा सोहागा पाने से सुवर्ण और भी कान्तिमान् हो जाता है। और उस माँग को सब नक्षत्र सेवा करती हैं, अर्थात् माँग पर मोती की लड नक्षत्र मी हो कर उस माँग की सेवा करती हैं। (उस समय उस मोती-लड को ऐसौ शोभा है) जैसी आकाश में गङ्गा अर्थात् मन्दाकिनी हो। आकाश में जो दक्षिणोत्तर सडक सौ नक्षत्र-माला देख पडतो है जिसे ग्राम्य-जन डहर कहते हैं उसे संस्कृत में श्राकाश-गङ्गा वा मन्दाकिनी कहते हैं। (यहाँ पटिया नौलाकाश और माँग पर मोती-लड आकाश-गङ्गा है)। गाने में कुछ सुर और तान में विशेष लालित्य करने के लिये गवैये लोग (तरई) इतना अधिक मिला लिये है जो परम्परा से अब मूल-मिलित है। छन्दो-भङ्ग के भय से हम ने उसे कोष्ठ के भीतर रख दिया है। इस प्रकार जहाँ मूल-ग्रन्थ में जो कोष्ठ के भीतर शब्द देखो उसे समझो कि क्षेपक है जैसा कि ८४, ८८, ६६, १ ० १, १०३, १ १३, १ १ ४, और ११६ दोहे में है ॥ १ ० २ ॥ चउपाई। कहउँ लिलाट दुइज कइ जोती। दुइहिँ जोति कहाँ जग आती॥ सहस-किरान जो सुरुज दिपाए। देखि लिलाट सोज छपि जाए ॥ का सरि बरनक दिगउँ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंक ॥
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