१०३] सुधाकर-चन्द्रिका। ओहि चाँदहि पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा ॥ हि लिलाट पर तिलक बईठा। दुइज पाट जानउँ धुब डौठा ॥ कनक पाट जनु बइठेउ राजा। सबइ सिँगार अतर लैइ साजा। ओहि आगइ थिर रहइ न कोज। दहुँ का कह सँजोज - अस जुरा 11 दोहा। 1 1 =तलवार। खरग धनुख चक बान अउ जग-मारन तेहि नाउँ। सुनि कइ परा मुरुछि कइ (राजा) मो कह भए कु-ठाउँ ॥ १०३ ॥ लिलाट = ललाट = मस्तक । दुइज = द्वितीया का चन्द्र । जोती = ज्योतिः। श्रोतो उतनौ = तावती। सहस-किरान = सहस्र-किरण । सुरुज = सूर्य। दिपाए = दिपता है प्रचलित होता है। मरि = सादृश्य 1- समता। बरनक = वर्णक = वर्णन = वर्णना। मयंकू = मयंक = मृगाङ्क = चन्द्र । चाँद = चन्द्र । निकलंकू = निष्कलङ्क = विना कलङ्क । गरासा = ग्रास करता है। परगामा = परकाशित होता है= प्रकाशित होता है। तिलक -टोका। पाट = पट्ट = पौढा। धुब = ध्रुव नक्षत्र, जो कि आकाश में सर्वदा एक स्थान पर अचल रहता है और वही नाडौ-मण्डल का पृष्ठीय-केन्द्र है। डौठा = दृष्टि पडता है = देख पडता है। अतर = अस्त्र । थिर = स्थिर। अस = ऐसा = एतादृश । जुरा = जुटा = युक्त हुआ = एकट्ठाँ हुआ। सँजोऊ = संयोग ॥ खरग नुख धनुष् । चक = चक्र = चक्राकार शस्त्र । बान = वाण । जग-मारन जगन्मारण जगत् का मारने-वाला । नाउँ= नाम । कु-ठाउँ= कु-स्थान = कुत्मित-स्थान = मर्म-स्थान, जहाँ पर घाव लगने से प्राण बचना कठिन हो जाता है। (पद्मावती के) ललाट को द्वितीया के चन्द्र को ज्योति कहूँ, अर्थात् कवि संशय में पड कर कहता है, कि ललाट को द्वितीया के चन्द्र-सदृश कह तो परन्तु उस द्वितीया के चन्द्र में उतनी (ललाट के ऐमौ) ज्योति कहाँ है ॥ (क्याँकि) सहस्र किरण-वाला जो सूर्य (आकाश में) दिपता है, (वह भी मायं काल में अस्त के बहाने ) ललाट को देख कर (उस के तेज से लज्जित हो कर) छिप जाता है, अर्थात् मुह छिपा लेता है। (कवि सोच कर फिर कहता है, कि) मैं वर्णन करने में चन्द्र से (उस ललाट कौ) समता क्या दिया, अर्थात् क्यों दिया, (क्योंकि ) चाँद तो कलङ्की अर्थात् कालो दागों से भरा है, और वह ललाट तो विना कलङ्क के ज्योतिभान् है। और फिर उस चन्द्र को तो 22
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