पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७० पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०३ - राहु गराम लेता है, अर्थात् खा जाता है, (दूस से वह मलिन हो जाता है) और वह ललाट-रूपी चन्द्र तो विना राहु के मदा प्रकाशित रहता है। द्वितीया के चन्द्र को जैसी टेढी आकृति होती है उसी के मदृश ललाटाकृति समझ कर कवि ने पहले द्वितीया के चन्द्र की उपमा दिया। फिर उस में ललाट मौ चमक न पा कर उस को हटाया और ललाट-कान्ति को उपमा मन-ही में पूर्ण-चन्द्र से दे कर फिर अनुचित समझ प्रकाश में 'का सरि बरनक दिउँ मयंकू' इत्यादि वाक्यों से पूर्ण-चन्द्र को भी तुच्छ ठहराया ॥ तिम ललाट के ऊपर जो तिलक बैठा है, अर्थात् टौका दिया हुआ है, ( उस की ऐसौ शोभा है) जानों द्वितीया के चन्द्र-रूपी पाट ( सिंहासन ) पर ध्रुव (बैठा) देख पडता है। पुराणों में कथा है, कि एक दिन ध्रुव के पिता उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे। उसी समय वहाँ पर ध्रुव को सौतेली माँ अपने लडके को लिये श्राई और ध्रुव को गोद में से ढकेल बाहर कर अपने लडके को उत्तानपाद के गोद में बैठा दिया, और अनेक कटु वचनों से ध्रुव का अनादर किया। इस पर ध्रुव ग्लानि से घर छोड वन में जा कर कठिन तपस्या करने लगे, जिस पर भगवान् प्रसन्न हो कर उन को सब से ऊँचा और अचल स्थान दिया। वही ध्रुव प्रकाश में अपने अचल स्थान पर मदा देख पडता है, और उसी के चारो ओर मदा सब ग्रह और तारा-गण घूमते दिखाई पड़ते हैं। बेध करने से ज्योतिषियों ने सिद्ध कर दिया है, कि आज कल जिसे लोग आकाश में ध्रुव कहते हैं वह अचल स्थान पर स्थिर नहीं है, किन्तु नाडी-मण्डल के पृष्ठीय केन्द्र के चारो ओर १° २८' धुज्याचापांश- वृत्त में घूमा करता है। इसी पर कमलाकर ने कहा है कि 'ध्रुवतारां स्थिरां ग्रन्थे मन्यन्ते ते कुबुद्धयः। साकं तैस्तु विवादोऽपि सतां मूढत्वमेव हि ॥ (तत्त्वविवेक के मध्यमाधिकार का ७८ वाँ लोक देखो ) ॥ यहाँ चमकता हुआ दुइज के चन्द्र मा टेढा ललाट पाट और उस पर का उज्ज्वल तिलक ध्रुव है ॥ (अथवा ललाट और तिलक को ऐसी शोभा है) जानों सोने के सिंहासन पर (कोई ) राजा बैठा है, ( ललाट सोने का सिंहासन और तिलक राजा है), (और वह राजा, पद्मावती के ) सब श्टङ्गार-रूपी अस्त्रों को ले कर सज्जित है, अर्थात् लडने को तैयार है। मन्त्र-प्रयोग से जो चलाये जाते हैं और जिन को शक्ति कभी नष्ट नहीं होती उन्हें अस्त्र कहते हैं ॥ उस ध्रुव श्रागे कोई स्थिर नहीं रहता, अर्थात् जैसे ध्रुव अपनी शक्ति से आप अचल हो सब तारा-गों को अपने चारो ओर घुमाया करता है, उसी प्रकार यह तिलक-रूपी - के