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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२६५

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१०५] सुधाकर-चन्द्रिका। १७५ . 3 नयन ऐसे बाँके हैं जिन को बराबरी में कोई नहीं पूरा पडता (पूजता), (क्योंकि आगे कवि ने इन्हें समुद्र बनाया है, और समुद्र तो अनन्वय है, दूसौ पर कवि ने जो यह कहा है, कि दून को बराबरौ में कोई नहीं है यह ठीक है। अनन्वयालङ्कार का उदाहरण कुवलयानन्द में भी लिखा है, कि 'मागरः सागरोपमः' ऐसे (नौचे से ऊपर और ऊपर से नीचे ये दोनों उलटते हैं (जैसे ) मान से अर्थात् अभिमान से समुद्र वा चौर-सागर (उलटता पलटता हो ) ॥ (उस नयन-समुद्र में ) लाल (रक्त = राते) कमल पर भ्रमर भ्रमण करते हैं, अर्थात् सु-गन्ध से मोहित हो भावरी फिरते हैं । (कुछ लालौ लिये कोए लाल-कमल, और उस पर घूमती कालो पुतलियाँ भावरौ भरते भ्रमर ऐसौ हैं)। (वे भ्रमर सु-गन्ध से) मत्त हो कर घूम रहे हैं अर्थात् घुमरौ खाते हैं (और) भागना चाहते हैं (परन्तु सु-गन्ध के नशे से विवश हैं)। (कालो पुतली समेत कोए जिस घडी ऊपर की ओर उठते हैं, उस घडी ऐमा जान पडता है) जानौँ घोडे उठते हैं जो कि बाग को नहीं लेते हैं, अर्थात् मोरने से नहौँ मुरते हैं, और उलट कर आकाश में लगते हैं। (यहाँ कालो पुतली समेत श्वेत-रक्त-कोत्रा उच्चैःश्रवा घोडा है, जो कि चौर-सागर से निकाला गया है, और चतु- र्दश-रत्न में एक रत्न है ) ॥ (वे नयन-समुद्र ऐसे चञ्चल हैं जानौँ ) पवन झकोरते हैं ( जिस से समुद्र) हिलोरा देता है, अर्थात् जल नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे को ओर जाता आता है। (दूस लिये वह समुद्र एक बेर जल को) स्वर्ग में लगा कर ( लाइ) फिर पृथ्वी में लगा कर फेरता है, अर्थात् जल को नौचे ऊपर नचा रहा है॥ कवि को उत्प्रेक्षा है, कि जब पद्मावती के नयन-समुद्र ऊपर की ओर उठते हैं तो दर्शकों के जौवन (जल) स्वर्ग को चले जाते हैं, और जब नौचे को फिरते हैं तो साथ-ही साथ जौवन भी नीचे पृथ्वी पर, अर्थात् दर्शकों के शरीर में, आ जाते हैं ॥ नयन के डोलते- हो जग डोलने लगता है, अर्थात् जगत के प्राणौ-मात्र चञ्चल हो जाते हैं, कि हाय अब इस नयन-समुद्र को बाढ से कैसे प्राण बचें। क्योंकि समुद्र को बाढ से तो जगत का लय-हौ हो जाता है, कहौँ आधार-ही नहीं रहता जहाँ कि प्राणी विश्राम ले । ( सो वे नयन-समुद्र) एक पल में अडार अर्थात् प्राणियों के ढेर का ढेर उलटा चाहते हैं, अर्थात् प्रलय किया चाहते हैं ॥ (उस नयन-समुद्र में ) ऐसे भौंह-रूपो भवर के जोडे हैं, अर्थात् आवर्त्त के एक जोडे हैं, कि जब वे फिरने लगते हैं, अर्थात् घूमने लगते हैं, तब आकाश को भी गह कर बोर देते हैं (डुबा देते हैं)॥ (चिच्छक्ति ॥ .