पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०५ - पद्मावती के भू-कुटौ-विलास से ब्रह्माण्ड का लय वा प्रादुर्भाव हुआ-ही करता है, दूस में कोई चित्र नहीं है)॥ बहुतों के मत से कद्र जोरा' यह पाठ है। तब 'उस समुद्र में ऐसे भौंह-रूपी भवर को किस ने जोडा है, अर्थात् लगाया है, कि जब घूमते हैं, तब आकाश को पकड कर बोर देते हैं, यह अर्थ करना चाहिए ॥ (जिस समय वे नयन इधर उधर ) झूलने लगते हैं, अर्थात् चञ्चल हो जाते हैं, (दोनों नासिका को ओर चल चल कर कान की ओर फिर जाते हैं, उस समय ऐसौ शोभा है) जानाँ समुद्र हिलोर करते हैं, वा खञ्जन (आपस में ) लडते हैं, वा वन में भूले मृग (इधर उधर फिरते ) हैं ॥ [ दोनों नयन-समुद्रों का नासिका को ओर वार वार थाना हिलोर करना है वा नयन-खञ्जनों का वार वार नासिका की ओर थाना आपस में लडना है, अथवा नयन-मृगों का वार वार नामिका की ओर ा ा कर कानन की ओर फिर जाना, जानौँ उन मृगों का भटकना है। खञ्जन के गले को कालिमा नेत्र को कालिमा से मिलती है, इस लिये नेत्र को उपमा खञ्जन से दी जाती है। किसी का मत है, कि खञ्जन बड़ा चञ्चल होता है, इस लिये चाञ्चल्य-धर्म ले कर कवि लोग इस की उपमा नेत्र से देते हैं, और मृग के नेत्र बडे और चञ्चल होते हैं, इस लिये वैपुल्य और चाञ्चल्य-धर्म ले कर मृग को उपमा नेत्र से दी जाती है। लडने लगते हैं तब क्रोधावेश से गले को कालिमा वा चञ्चलता और बढ़ जाती है, और जब मृग भूल जाते अर्थात् अपने साथियों से बिछुड जाते हैं, तब साथियों से मिलने की चाह से उन के स्वाभाविक विपुल और चञ्चल नेत्र और भी विपुल (बडे ) और चञ्चल हो जाते हैं। इस लिये कवि का 'खञ्जन लरहिँ मिरिग बन भूले' यह कहना बहुत-ही रोचक है] ॥ इस प्रकार से दोनों नयन शुभ्र-समुद्र, अर्थात् चौर-सागर हैं, जिन में माणिक्य और तरङ्ग भरे हैं (नेत्र में लाल-डोरे माणिक्य और चाञ्चल्य तरङ्ग हैं )। तिस (समुद्र) के मङ्ग काल से वा काले ऐसे (भौंह-रूपौ) भवर (श्रावर्त्त) हैं, [जो कि जो लोग उस समुद्र के तौर (तट)] आते हैं उन को फिराने लगते हैं, अर्थात् जो कोई काल का मारा उस नयन-समुद्रों को लहर लेने के लिये तौर (पास) आया, कि भौंह-रूपौ भवरों को कुटिलता से चक्कर खाने लगा, फिर उस को सामर्थ्य नहीं कि उस चक्कर के फेर से फिर कर अपने को संभाले और अपने घर वार की सुधि ले। उसी में पड़ा प्राणान्त-पर्यन्त सडा करता है। भ्रान्त और श्रान्त हो कर ठोकर खाता फिरा करता जब खञ्जन
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