२२२ पदुमावति ।१० । नखसिख-खंड । [११५ दोहा। - - द्राक्षा पवित्र । राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माँथ । काह छुअइ न पाण्उ गए मरोरत हाथ ॥ ११५ ॥ हिा = हृदय = छाती। थार = स्थालौ । लाडू = लड्डू = मोदक । कनिक = कनौ- कणी, जिस में कण हो, रवे रवे, स्वच्छ गेहूँ का श्राँटा जिस से पूरी कचौरी इत्यादि पक्वान्न बनते हैं। कचउरि = कचौरी, एक प्रकार का त-पक्व । उठ = उठती है। फूलती है = खिलती है। चाडू = चण्ड = वेग बल। कुंदन = सब से बढियाँ सुवर्ण । बेल : विल्व-फल। साजि = सज कर = भूषित कर। कूँदे = कुंदन किये गये हैं। रतन = रत्न । मूंदे = मुद्रित किये गये हैं = बंद किये गये हैं। कंट = कण्टक काँटा। केतकी पुष्पविशेष, जो सर्वत्र प्रसिद्ध है। कंचकौ = कञ्चुको = चोलिया। जोबन = यौवन, यहाँ कुच । हुलसि = उल्लसित हो कर = ऊँचे हो कर । उसँग = उत्तुङ्ग = अति-ऊँचे । जंभीर जम्बीर = एक प्रकार का निम्बू । बारौ = कन्या (वालिका), वा बगौचा (वाटिका)। दारिउँ = दाडिम। दाख = अङ्गुर। अन-चाखे = विना चकवे = साफ नारंग = =नारङ्ग नारङ्गी ॥ तपि= तप कर = तपस्या कर । मुए = मरे = मर गये ॥ हृदय थार में कुच कञ्चन का लड्डु है। (अथवा कुचों की शोभा ऐसी है, जानों) बस्त कर के कनिक की कचौरी उठती है, अर्थात् फूल रही है। (चक्राकार उठते हुए स्तन, कराही में फूलती हुई बदामी रंग की कनिक-कचौरी से जान पडते हैं ) ॥ (अथवा स्तनों की ऐसी शोभा है), जानौँ (दो) विल्व-फल, बढियाँ सुवर्ण से भूषित कर, कँदे गये हैं, अर्थात् सुवर्ण-भूषित-विल्चों के ऊपर कुंदन करने से जैसी चमकीली कान्ति होती है, उसी प्रकार के गोल गोल विल्व-फल-सदृश चमकौले कुच हैं। (अथवा कुच नहीं हैं, जानौँ) दो रत्न (के कलस) अमृत से भरे मूंदे हुए हैं, (जिम में वह अमृत-रस बाहर गिर कर नष्ट न हो जाय)। (यहाँ स्तन के नीचे का गोल भाग उठा हुआ कलम है, और कुचाग्र उस कलस के मुख का ढकना है) ॥ ( वे काले कुचाग्र ऐसे जान पड़ते हैं, जानौँ) केतको के कण्टक से भ्रमर विद्ध हो गये हैं, ( दूस लिये केतकी के पुष्य के ऊपर अटके हुए हैं )। (नीचे के स्तन-भाग केतकी के पुष्य-सदृश, और उन पर काले कुचाग्र जिन्हें संस्कृत में चूचुक कहते हैं, कण्टक-विद्ध भ्रमर हैं)। केतकी का अग्र सूच्याकार होता है, इसी लिये श्री-हर्ष ने भी लिखा है, कि -
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