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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२९३

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११५] सुधाकर-चन्द्रिका | २२३ 'त्वदग्रसूची-सचिवः स कामिनोमनोभवः सौव्यति दुर्यशाःपटौ। स्फुटं च पत्त्रैः करपत्त्रमूर्तिभिर्वियोगिहृद्दारुणि दारुणायते ॥' (१स । श्लो. ८०) और युवावस्था के समय कुचायाँ पर श्यामता आ जाती है, जो कि गर्भाधान होने पर विशेष कृष्णता प्राप्त करती है। यह प्रसिद्ध है; दूसौ पर कालिदास ने रघुवंश में कहा है, कि - 'दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं तदीयमानीलमुखं स्तनदयम् । तिरश्चकार भ्रमराभिलौनयोः सुजातयोः पङ्कजकोशयोः श्रियम् ॥' (३ स० । श्लो. ८) (वे ऐसे नाखौले कुचाग्र हैं, कि) चोलिया में बेध, अर्थात् छेद किया चाहते हैं ॥ वे कुच ( योवन ) बाण हैं, (जो) बाग नहीं लेते हैं, अर्थात् मोरने से भी नहीं मुरते हैं। (किन्तु) हुलस कर (देखने-वालों के) हृदय में लगा चाहते हैं, (लाचार हैं, कि छाती में बंधे हुए हैं ) ॥ (वे कुच) जानौँ दो अग्नि-वाण, अर्थात् तोप के गोले साधे हुए हैं। (दूस लिये) यदि (छाती में ) बाँधे न होते, तो जगत् को बेधते, अर्थात् बेध डालते ॥ (वे कुच जानौँ) ऊँचे ( सरस) जम्बौर (निम्बू) हैं, (जिन को चोलिया इत्यादि वस्तु से और सखियों से ) रखवारी होती है, (दूस लिये) कौन (उन ) राजा के वारी ( कन्या वा वाटिका) के निम्बुओं को छू सकता है, अर्थात् किसी की सामर्थ्य नहीं, कि उन निम्बुओं को छूवे, क्यों कि जिस राजा का गढ सहस्र सहस्र पदातियाँ से और पाँच कोतवालों से सुरक्षित है, (४१ वाँ दोहा देखो) उस गढ तक पहुँचना-ही अत्यन्त कठिन है, फिर विना तपो-बल के उस के भीतर बारी में, और बारी के भीतर सुरक्षित निम्बू तक पहुँचने की चर्चा-ही करना व्यर्थ है। गढ को शरीर, उस के भीतर के स्थल को जहाँ षट् कमल [योग-ग्रन्थ में गुद-मूल से शिरो-भाग तक शरीर के मध्य श्राधार (= गुदस्थान ), अधिष्ठान (= मूत्रेन्द्रिय का निकट भाग), नाभि, हृदय, कण्ठ, भ्रूमध्य और ब्रह्म-रन्ध्र (ब्रह्माण्ड) में एक एक चक्राकार कमल मानते हैं। 'चतुर्दलं स्यादाधारे खाधिष्ठाने च षट्दलम् । नाभौ दशदलं पद्मं सूर्यसंख्यादलं हृदि ।