पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२९४

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२०४ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [ ११५ - ११६ कण्ठे स्यात् षोडशदलं भूमध्ये द्विदलं तथा । सहस्रदलमाख्यातं ब्रह्मरन्ध्र महापथे ॥' (गोरक्ष-शतक । श्लो० १५-१६)] हैं वाटिका, मन को राजा और आत्मा को निम्बू मानने से योग-पक्ष में भी लगा सकते हो ॥ (वे कुच नहीं हैं, जानौँ उस बारी में ) विना चकवे, अर्थात् पवित्र, ज्यों के त्यों दाडिम और द्राक्षा हैं। (अथवा कुच नहीं हैं, जानौँ उस बारी में सुन्दर नारंगी हैं, सो) देखें किस के लिये ऐसी नारंगियाँ रक्खी हुई हैं। (नारङ्ग पुलिङ्ग है, दूस लिये कवि ने 'राखे' का प्रयोग किया है)। हे राजा, बहुत लोग, (वा राजा को सम्बोधन न मानो, तो) बहुत राजा लोग तपस्या कर भूमि में माथे को लगा लगा कर, अर्थात् रगड रगड कर, मर गये, (और बहुत से ) हाथ मरोरते (निराश हो कर ) चले गये, (परन्तु) कोई (उन जम्बौर के ऐसे ऊँचे, दाडिम-द्राक्षा के ऐसे रस-भरे, और नारंगी के ऐसे रंग-दार कुचों को) कूने न पाया ॥ ११५ ॥ चउपाई। पेट पतर जनु चंदन लावा। कुंकुंह केसर बरन सोहावा ॥ खीर अहार न कर सु-कुवाँरा। पान फूल लेइ रहइ अधारा ॥ साव-भुअंगिनि रोवाँवली। नाभी निकसि कवल कह चली ॥ आइ दुहूँ नारंग बिच भई। देखि मजूर उमकि रहि गई ॥ जनउँ चढौ भवरन्ह कइ पाँती। चंदन-खाँभ बास गइ माती ॥ कइ कालिंदरि बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥ नाभी कुंडर बानारसी। सउँह को होइ मौचु तेहि बसौ ॥ दोहा। सिर करवत तन करसी (लेइ लेइ) बहुत सौझ तेइ आस । बहुत धूर्वं छुटि मुए देखे उतर न देइ निरास ॥ ११६॥ लावा = लगाया है। कुंकुंह = कुंकुम =रोरी। बरन = वर्ण। खौर = चौर =दुग्ध । श्रहार आहार = भोजन। सु-कुवाँरा = सु-कुमार = पतर = पत्र वा पतला=कृश।