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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३३२

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२४२ पदुमावति । १२ । जोगौ-खंड । [१२८-१२६ अर्थात् पागल के ऐसा राजा हो गया। मन में प्रेम के लट उरझ गये, वा (राजा का) मन बौरहा हो गया (और पद्मावती, पद्मावती,) रटने लगा। (उस मन में) प्रेम उरझ गया, (और शरीर की खबर न लेने से ) शिर पर जटा पड गई ॥ (जो) चन्द्र के ऐसा मुख और चन्दन से भूषित देह थो; (उस पर ) भस्म को चढा कर ( लपेट कर) शरीर को मट्टी कर डाला ॥ मेखला, श्टङ्गी, योग को शुद्ध करने-वाला धंधारौ चक्र, रुद्राक्ष (गले को कंठी) और आधार (श्रासन के लिये पौढा) दून सब को धारण किया ॥ कंथा को पहर कर, कर में साँटे को लिया। सिद्ध होने के लिये 'गोरख गोरख' कहने लगा, अर्थात् गुरु-वर गोरख-नाथ का नाम जपने लगा ॥ कान में मुद्रा, कण्ठ में जप करने को (रुद्राक्ष-)माला, हाथ में कमण्डलु और कंधे पर (श्रासन के लिये) व्याघ्र-चर्म को, और पैरों में पावरी, शिर के ऊपर छाता, और (बगल में) खप्पर को लिया, अर्थात् धारण किया । वेष लाल कर सब को धारण किया, अर्थात् जिन वस्तुओं के ऊपर नाम गिना गये है, उन सब को गरुये रंग से रंग कर तब धारण किया। (इस प्रकार से राजा पूरा गोरख-पन्थी योगी हुश्रा, और गोरख-नाथ के नाम जपने से गोरख-नाथ को अपना गुरु बनाया) ॥ (इस प्रकार) तपस्या के योग्य अपनी शरीर को बना कर (माजि), भुक्ति (पद्मा- वती-प्राप्ति) माँगने के लिये चला। (और मन में यही सोचता है, कि) जिस का हृदय में वियोग (विरह) है, (तिमी) पद्मावती से सिद्ध होऊँ, अर्थात् तिमी पद्मा- वती की प्राप्ति होने-हौ से मैं अपने को सिद्ध सममूंगा ॥ १२८ ॥ चउपाई। गनक कहहिँ गनि गवन न आजू। दिन लेइ चलहु होइ सिध काजू ॥ पेम-पंथ दिन घडी न देखा। तब देखइ जब होइ सरेखा ॥ जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँस्न । कया न रकत न नयनन्द आँस्व ॥ पंडित भूल न जानइ चालू। जीउ लेत दिन पूँछ न काल ॥ सतो कि बउरी पूँछइ पाँडे । अउ घर पइठि न सइँतइ भाँडे ॥ मरइ जो चलइ गंग-गति लेई। तेहि दिन कहाँ घडी को देई॥ मइँ घर-बार कहाँ कर पावा। घर काया पुनि अंत परावा ॥