पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४१५

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१४] सुधाकर-चन्द्रिका। - न समझो किन्तु कन्था समझो, जो कि निर्जीव और बे-काम है ॥ (गज-पति मन में कहता है, कि राजा रत्न-सेन) संशय और डर को खो कर, अर्थात् भुला कर, निश्चय से, अर्थात् दृढता से, (सिंहल को) चला है, मो, जहाँ (ऐमा) साहस है तहाँ ( अवश्य-ही) सिद्धि (मनोरथ-सिद्धि) होती है ॥ सो राजा निश्चय से राज्य को छोड कर, (सिंहल को चला है, (यह गज-पति ने अपने मन में निश्चय कर, रत्न-सेन को) जहाज दिया (और जहाज-उपयोगि) साज (सामग्री) को भी दिया ॥ (राजा) शीघ्र (जहाज पर) चढा और जहाज चलाये गये। (कवि कहता है, कि) धन्य वे पुरुष हैं, जो कि प्रेम-मार्ग में खेलते हैं, अर्थात् जो कि सब से उत्तम मन-बहलाव प्रेम-मार्ग-ही को जानते हैं। यदि (कोई) प्रेम-मार्ग के पार पहुंचे, (तो वह) फिर (दूस संसार में) श्रा कर, तिस (संसार के) भस्म में नहीं मिलता है, अर्थात् वह जन्म मरण से मुक्त हो प्रेम-मय पर-ब्रह्म में लीन हो जाता है | वे लोग (तिन्ह) उत्तम कैलास वा ब्रह्म-विलास को पाते हैं, जहाँ मृत्यु नहीं है (और) सदा सुख से स्थान है, अर्थात् जहाँ मृत्यु-भय से मुक्त हो, प्राणौ सुख से अचल स्थान में विराजता है ॥ (मुहम्मद कहते हैं कि) दूस जीवन को क्या प्राशा, जैसे खप्न और तिल का आधा, अर्थात् जैसे स्वप्न की स्थिति बहुत थोडे काल तक रहती है, और एक तिल-ही छोटे परिमाण के कारण बहुत अल्प काल तक एक स्थान में रहता है, तहाँ तिल के आधे की स्थिति तो और भी बहुत अल्प है ; एक क्षण में दृष्टि-गोचर हुआ, दूसरे क्षण में वायु-वेग से अन्यत्र चले जाने से अगोचर हो गया। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है। इस क्षण में वर्तमान है, दूसरे क्षण मैं नहीं जानते, कि इस की स्थिति कहाँ होगी। (दूस लिये जब यह जीव क्षण-भङ्गुर है तब इस के ठहराने का यत्न सब निष्कल है, मो) जो लोग जौते-हो मर गये हैं, अर्थात् जो प्रेम-पथ में चले हैं, (क्योंकि प्रेम-पथ-ही में पहले शिर दे कर, तब मनुष्य चलता है; दूस लिये जानाँ जीता-हो मरे के समान है) तिन्ही पुरुषों को (मैं) साधु, अर्थात् समोचीन, कहता हूँ। कवि का तात्पर्य है, कि जब निश्चय है, कि शरीर क्षण-भङ्गुर है तब यह प्रेम-पथ में यदि खोई जाय तो अत्युत्तम ; दूस लिये जो प्रेम-पथ में शरीर खोवे उसी को मैं सच्चा साधु महात्मा समझता हूँ॥ १४८॥ इति राज-गजपति-संवाद-खण्ड-नाम त्रयोदश-खण्डं समाप्तम् ॥ १३॥