३३६ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [१५८ वाल (शक्नोति) सकता है। चाँटा = चाट = चौंटा। चाहि = च हि = से भौ। पनि पानी = पान जिस में हो (अनेक वस्तुओं को पानी में मिला कर, उस मिश्रित पानी में पक्का करने के लिये शस्त्र को बुझाते हैं। इस मिश्रित पानी को संहिता-कारों ने 'पान' के नाम से लिखा है। पान जिस में हो मो पानी, जैसे दण्ड से दण्डौ, दान से दानौ, मान से मानी इत्यादि ) अर्थात् चोखाई, वा तेजाई अथवा तौक्षणता । पदूनाई = पनि से धर्मबोधक शब्द बनाने के लिये तद्धित से 'आई' प्रत्यय लगा है, जैसे पाहुन से पहुनाई, मौत से मिताई, खट्टा से खटाई इत्यादि । बार = -केश (चिकुरः कुन्तलो वालः कचः केश: शिरोरुहः, अमरकोश, काण्ड २, मनुष्य- वर्ग । श्लो. ६५८)। पातरि= पतला = पत्र के ऐसा = सूक्ष्म । पतराई = पतलापन (धर्मवाचक में पतरे से 'आई' प्रत्यय)। लौ जिन = लौजिये । तउ = तहि = तो। कौजि= कौजिये ॥ मरन = मरणम् = मरना । जिन = जीवनम् = जीना। एही यही । श्रास = श्राशा उम्मेद । निराम = नैराश्य = ना उम्मेदौ। परा = परद् (पतति) का भूत-काल में एक-वचन । पतारहि = पाताल को। तरा (तरति) तर का भूत-काल में एक-वचन । कबिलास = कैलास = शिव-लोक ॥ होरा-मणि ( शुक) राजा ( रत्न-सेन ) से बोला, ( कि ) सत्य को डोलाने-वाला यही समुद्र है ॥ सिंहल-दीप में जो निर्वाह नहीं होता, अर्थात् जा नहीं सकते, ( उस का कारण यही है, कि) यही स्थान (किलकिला समुद्र) सब किसी को कठिन है, अर्थात् यात्रियों को यही रोक रखता है ; इसी को देख कर लोग प्राण-भय से फिर जाते हैं । यही ( बडा ) गम्भौर किलकिला समुद्र है। जिस को (कोई अपूर्व) विद्या वा गोन (जहाज खौंचने को डोर) हो सो (दूस के उस) तौर को पाता है | यही समुद्र-पथ में मध्य-धारा है, अर्थात् यही समुद्रों का मध्य-धारा-रूप समुद्र है, दूसी में सब से अधिक लहर और भयङ्कर धारा का वेग है। (इस को) खास तलवार के धार ऐसौ धारा है, अर्थात् जैसे खड्ग को धारा के सम्मुख जाने से प्राणौ टूक टूक हो जाता है; इसी प्रकार इस को धारा के सम्मुख पड जाने से, जीव, जन्तु, जहाज इत्यादि के टुकडे टुकडे हो जाते हैं ; वे टुकडे पाताल में पहुंच जाते हैं, क्योंकि पता नहीं लगता, कि कहाँ चले गये ॥ तौस हजार क्रोश का (तो इस का) पाट है। (और यह ) तैसा कठिन है, कि चौटा भौ (दूस में ) नहीं चल सकता । यहाँ चौटा से चौटा के ऐसा लघु पुरुष समझो, जो कि अपनी लघुता से पानी के नीचे नहीं जाता, किन्तु पानी के ऊपर-हौ तेरा
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४४२
दिखावट