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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४४३

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१५८- १५६] सुधाकर-चन्द्रिका। ३३७ करता है, तिस के लिये भी इस समुद्र का पार होना कठिन है। अन्यथा चौंटा एक साधारण जल भरे गड हे के पार नहीं हो सकता, उस को समुद्र-तरण में असमर्थ होने से समुद्र को क्या विशेष महिमा हुई ॥ (दूस समुद्र की धारा में ) खड्ग को तीक्ष्णता से भी बढ कर तौक्षाता है। बार को पतराई से भी बढ कर पतला-पन है, अर्थात् इस की धारा में ऐसी तेजी और पतला-पन है, कि छोटा से छोटा और पतला से पतला भी जन्तु इस के सामने पडे, तो भी टूक टूक हुए विना न बचे ॥ दूसौ स्थान के लिये गुरु को संग लौजिये, अर्थात् गुरु को संग लेना चाहिए, अर्थात् ध्यान से गुरु का स्मरण कर, गुरु को अपने हृदय में धर लेना चाहिए । (जब ) गुरु संग में हो तब (दूस को) पार कीजिये, अर्थात् ध्यान से गुरु को अपने हृदय में धर कर, उसे संगो बना कर, तब इस को पार करना चाहिए ॥ इस (समुद्र कौ) राह में मरना जौना (दोनो) है। इस (राह) में श्राशा, निराशा (दोनो) है, (क्यों कि) (जो दूस की धारा में) पडा वह (मो) (तो) पाताल को चला गया (इस से मरना और निराशा दोनो हुए), (और जो) तर गया, अर्थात् निर्विघ्न पार हो गया, सो कैलास में गया, अर्थात् आशा पूर्ण हुई, और सदा के लिये जीना ( अमरत्व ) हो गया। वह प्राणो जीवन्मुक्त हो पर-ब्रह्म- स्वरूप हो गया ॥ १५८ ॥ चउपाई। राजइ दोन्ह कटक कहँ बौरा। सु-पुरुख होहु करहु मन धौरा ॥ ठाकुर जेहि क वर भा कोई। कटक सर पुनि श्रापु-हि होई ॥ जउ लहि सती न जिउ सत बाँधा। तउ लहि देइ कहार न काँधा । पेम-समुद मँह बाँधा बेरा । प्रइ सब समुद बूंद जेहि केरा ॥ ना हउँ सरग क चाहउँ राजू। ना मोहिँ नरक सितँ किछु काजू ॥ चाहउँ ओहि कर दरसन पावा। जेइ मोहिं आनि पेम-पँथ लावा ॥ काठहि काह गाढ का ढोला। बूड न समुद मगर नहिं लौला ॥ दोहा। गहि समुदर धसि लीन्हे सि भा पाछइ सब कोइ। कोइ काह न सँभारई आपुनि आपुनि होइ ॥ १५८ ॥ 43